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संकट में क्षेत्रीय पार्टिया

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प्रयागराज से अंकित मिश्रा की रिपोर्ट

जो लोग संप्रदायवाद, पंथवाद, परिवारवाद एवम हठीली विचारधारा की कोठरी में कैद हैं, वे NDA के जीत से “आता नही यकीन, होता नही बया” के अंदाज में अचंभित हैं। दोष उनका नही हैं। बौद्धिक संकुलता ‘ जड़ एवम निश्चित नैरेटिव’ की आवश्यक परिणीति हैं जिसमे इंसान में नई दृष्टि का अंत हो जाता हैं। यही भारत के 2019 लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों में देखने को मिला।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के कुल 542 सीटों में उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य का अपना ही जलवा होता है क्योंकि किसी भी पार्टी को दिल्ली की कुर्सी के लिए यूपी तथा बिहार से “तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो” अर्थात माई बाप जैसा व्यवहार करना होगा। इस बार के चुनाव में यूपी का अलग ही बोल बाला था । एक तरफ गठबंधन (सपा + बसपा) ,दूसरी तरफ कांग्रेस जो 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ मैदान में थी तो एक ओर बीजेपी थी।

कहते हैं सपा बसपा मतलब “माय” अर्थांत मुस्लिम यादव । लोग आस लगाए बैठे थे इस बार यूपी में कांटे की टक्कर होगी लेकिन चुनाव नतीजे तो सब चौक गये । माय थिय्योरी का जादू नही चल पाया। 2014 में शून्य पर काबिज बसपा तो 10 सीटे जीती लेकिन सपा अपना कुनबा भी नही बचा सकी अर्थांत 7 सीटों में सिमट गयी। जो उसी प्रकार था जैसे “अच्छा चलता हूं दुवाओ में याद रखना”।

यूपी में माय थिय्योरी भी अपना असर नही दिखा पायी जो लोगो के विमर्श का विषय बन गया हैं कि आखिर क्या वजह बनी की यूपी के राजनीती में अपना वर्चस्व रखने वाली सपा बसपा का मेल फेल हुआ? क्या ये गठबंधन जनता के मनोभाव को समझने में भूल की या अपने वोट बैंक को साधने में चूक गयी।

दरसल किसी भी पार्टी को वोट मिलने में तीन विचार हमेशा काम करती हैं पहला पक्के कार्यकर्त्ता होते हैं जो किसी पार्टी को वोट देते हैं, दूसरा किसी पार्टी के समर्थक होते हैं जो पार्टी को वोट देते हैं और तीसरा कुछ लोग अपना स्वविवेक का प्रयोग करके मतदान करते हैं।

सपा के हारने का मुख्य कारण बना उसके मुखिया द्वारा अपने चुनावी घोषणा पत्र में यादव रेजिडेंस बनाने का ऐलान करना इससे अन्य ओबीसी जाति ने सपा से दुरिया बना लिए । इसके साथ ही कन्नौज की रैली में डिम्पल यादव द्वारा मायावती का पैर छूना भी कंही न कार्यकर्त्ता में मैसेज गया कि देखो मायावती अपने गेस्ट हाउस कांड के दौरान कहा था कि यादवो को पैर पर गिराऊगी उन्होंने अपना प्रण पूरा किया । साथ ही किसी रैली में मायावती द्वारा अखिलेश का भाषण बिच में ही रोक कर कंही और सभा में जाने का इशारा करना भी कार्यकर्ताओ में गलत मैसेज गया।

NDA सरकार की कुछ योजनाएं जैसे उज्जवला योजना, आयुष्मान भारत योजना और सौभाग्य योजना ने बेहतर काम किया जो वोट बैंक माने जाने वाले समूह में छेद करने में सफल रही। यह उसी प्रकार काम किया जैसे गांधी जी कहा करते थे आप कोई काम करने से पहले ये जरूर सोचो की आप जो काम कर रहे हो क्या उसका लाभ पन्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को मिलेगा। साथ ही साथ पांच साल के दौरान ले देकर राफेल को छोड़कर एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नही लगा जो जनता पर अपना प्रभाव डाल पाये क्योंकि भ्रष्टाचार का न होना लोगो पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता हैं।

हाल ही में अमेरिका से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया था कि उत्तर भारत खास कर यूपी और बिहार के मतदाता में जागरूकता की कमी बहुत ज्यादा हैं और वहाँ के मतदाता चुनाव में अपनी जाति और धर्म पर वोट देते है क्षेतीय पार्टिया इसी को साधने में लगी रही। जनता परिवारवाद और वंशवाद की राजनीती से तंग आ चुकी थी । टाइम्स मैगनीज ने मोदी को पर्सन आफ द ईयर्स चूका उसमे कहा गया था कि भारत में विपक्ष में कोई चेहरा नही हैं एक यूपीए हैं उसने भी कुछ नही किया सिर्फ अपने बहन को मैदान में उतार दिया साथ ही पूरे विपक्ष में दूरदृष्टि की कमी भी देखने को मिली।

निष्कर्षतः भारत में क्षेत्रीय पार्टियों और यूपीए को जातिवाद, परिवाद और वंशवाद की विचारधारा से ऊपर उठकर सोचना होगा नही क्षेत्रीय पार्टियों खास कर यूपी में सपा और बिहार में RJD के अस्तित्व पर सकंट के बदल छाये हुए दिख रहे हैं । सभी विपक्षी पार्टियों को आत्ममंथन करने की जरुरत हैं।

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