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भगवान का होकर भगवान की पूजा करने की सीख देती है ऋषि परम्परा- पंडित देवी प्रसाद महाराज

भदोही। गोपीगंज क्षेत्र के बिहरोजपुर गांव में स्थित बडेवीर मंदिर प्रांगण में शनिवार को ऋषि पंचमी के मौके पर पंडित देवी प्रसाद महराज ने दूर दूर से आये कथा सुनने वालों को ऋषि पंचमी का महत्व और इसके व्रत के लाभ और सावधानियों के बारे में विस्तृत रूप से बताया। पंडित देवी प्रसाद ने बताया कि भारत ऋषि-मुनियों का देश है । इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अनुसार जीवन जीनेवाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण सफलता प्राप्त करते है। कहा कि ऋषि तो ऐसे कई हो गये, जिन्होंने अपना जीवन केवल ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय’ बिता दिया । हम उन ऋषियों का आदर करते हैं, पूजन करते हैं । उनमें से भी वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप आदि ऋषियों को तो सप्तर्षि के रूप में नक्षत्रों के प्रकाशपुंज में निहारते हैं ताकि उनकी चिरस्थायी स्मृति बनी रहे। ऋषियों को ‘मंत्रद्रष्टा’ भी कहते हैं । ऋषि अपने को कर्ता नहीं मानते । जैसे वे अपने साक्षी-द्रष्टा पद में स्थित होकर संसार को देखते हैं, वैसे ही मंत्र और मंत्र के अर्थ को साक्षी भाव से देखते हैं । इसलिए उन्हें ‘मंत्रद्रष्टा’ कहा जाता है।

पंडित देवी प्रसाद ने कहा कि ऋषि पंचमी के दिन इन मंत्रद्रष्टा ऋषियों का पूजन किया जाता है । इस दिन विशेष रूप से महिलाएँ व्रत रखती हैं। ऋषि की दृष्टि में तो न कोई स्त्री है न पुरुष, सब अपना ही स्वरूप है । जिसने भी अपने-आपको नहीं जाना है, उन सबके लिए आज का पर्व है । जिस अज्ञान के कारण यह जीव कितनी ही माताओं के गर्भों में लटकता आया है, कितनी ही यातनाएँ सहता आया है उस अज्ञान को निवृत्त करने के लिए उन ऋषि-मुनियों को हम हृदयपूर्वक प्रणाम करते हैं, उनका पूजन करते हैं। भगवान के होकर भगवान की पूजा करो । ऋषि असंग, द्रष्टा, साक्षी स्वभाव में स्थित होते हैं । वे जगत के सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, शुभ-अशुभ में अपने द्रष्टाभाव से विचलित नहीं होते । ऐसे द्रष्टाभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना और अभ्यास करते-करते उसमें स्थित हो जाना ही उनका पूजन करना है । उन्होंने खून-पसीना एक करके जगत को आसक्ति से छुड़ाने की कोशिश की है ।

हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीत-रिवाजों में उन्होंने कुछ-न-कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के परदे हटें और सृष्टि को ज्यों-का-त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके । उन ऋषियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनका पूजन करना चाहिए, ऋषिऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।

पंडित ने कहा कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मासिक धर्म के दिनों में स्त्री के शरीर से अशुद्ध परमाणु निकलते हैं, उसके मन-प्राण विशेषकर नीचे के केन्द्रों में होते हैं । इसलिए उन दिनों के लिए शास्त्रों में जो व्यवहार्य नियम बताये गये हैं, उनका पालन करने से हमारी उन्नति होती है। इस व्रत की कथा के अनुसार जिस किसी महिला ने मासिक धर्म के दिनों में शास्त्र-नियमों का पालन नहीं किया हो या अनजाने में ऋषि के दर्शन कर लिये हों या इन दिनों में उनके आगे चली गयी हो तो उस गलती के कारण जो दोष लगता है, उस दोष के निवारण हेतु, इस अपराध के लिए क्षमा माँगने हेतु यह व्रत रखा जाता है। ऋषि-मुनियों को आर्षद्रष्टा कहते हैं। उन्होंने कितना अध्ययन करने के बाद सब रहस्य बताये हैं ! ऐसे ही नहीं कह दिया है ।

अभी भी आप अनुभव कर सकते हैं कि जिन दिनों घर की महिलाएँ मासिक धर्म में होती हैं, उन दिनों में प्रायः आपका मन उतना प्रसन्न और उन्नत नहीं रहता जितना और दिनों में रहता है। जिन घरों में शास्त्रोक्त नियमों का पालन होता है, लोग कुछ संयम से जीते हैं, उन घरों में तेजस्वी संतानें पैदा होती हैं। ऋषि पंचमी का दिन त्यौहार का दिन नहीं है, व्रत का दिन है । ऋषि पंचमी के दिन हो सके तो अधेड़ा का दातुन करना चाहिए । दाँतों में छिपे हुए कीटाणु आदि निकल जायें और पायरिया जैसी बीमारियाँ नहीं हों तथा दाँत मजबूत हों – इस तरह दाँतों की तंदुरुस्ती का ख्याल रखते हुए यह बात बतायी गयी हो, ऐसा हो सकता है। इस दिन शरीर पर गाय के गोबर का लेप करके नदी में 108 बार गोते मारने होते हैं । गोबर के लेप से शरीर का मर्दन करते हुए स्नान करने के पीछे रोमकूप खुल जायें, चमड़ी पर से कीटाणु आदि का नाश हो जाय और साथ में एक्युप्रेशर व मसाज भी हो जाय – ऐसा उद्देश्य हो सकता है । 108 बार गोते मारने के पीछे ठंडी, गर्मी या वातावरण की प्रतिकूलता झेलने की जो रोगप्रतिकारक शक्ति शरीर में है, उसे जागृत करने का हेतु भी हो सकता है।अब आज के जमाने में नदी में जाकर 108 बार गोते मारना सबके लिए तो संभव नहीं है, इसलिए ऐसा आग्रह भी मैं नहीं रखता हूँ, लेकिन स्नान करो तब 108 बार हरिनाम लेकर अपने दिल को तो हरिरस से जरूर नहलाओ।

स्नान के बाद सात कलश स्थापित करके सप्त ऋषियों का आवाहन करते हैं । उन ऋषियों की पत्नियों का स्मरण करके, उनका आवाहन, अर्चन-पूजन करते हैं । जो ब्राह्मण हो, ब्रह्मचिंतन करता हो, उसे सात केले घी-शक्कर मिलाकर देने चाहिए – ऐसा विधान है ।अगर कुछ भी देने की शक्ति नहीं है और न दे सकें तो कोई बात नहीं, पर दुबारा ऐसा अपराध नहीं करेंगे यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए।

कहा कि ऋषि पंचमी के दिन बहनें मिर्च, मसाला, घी, तेल, गुड़, शक्कर, दूध नहीं लेतीं । उस दिन लाल वस्त्र का दान करने का विधान है। ऋषि पंचमी के दिन सप्तर्षियों को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि ‘हमसे कायिक, वाचिक एवं मानसिक जो भी भूलें हो गयी हों, उन्हें क्षमा करना। उसके बाद हमारा जीवन ईश्वर के मार्ग पर शीघ्रता से आगे बढ़े, ऐसी कृपा करना। हमारी क्रियाओं में जब ब्रह्मसत्ता आती है, हमारे रजोगुणी कार्य में ब्रह्मचिंतन आता है तब हमारा व्यवहार भी तेजस्वी, देदीप्यमान हो उठता है । खान-पान, स्नानादि तो हम हर रोज करते हैं, पर व्रत के निमित्त उन ब्रह्मर्षियों को याद करके सब क्रियाएँ करें तो हमारी लौकिक चेष्टाओं में भी उन ब्रह्मर्षियों का ज्ञान छलकने लगेगा । उनके अनुभव को अपना अनुभव बनाने की ओर कदम आगे रखें तो ब्रह्मज्ञानरूपी अति अद्भुत फल की प्राप्ति भी हो सकती है। ऋषि पंचमी का यह व्रत हमें ऋषिऋण से मुक्त होने के अवसर की याद दिलाता है । लौकिक दृष्टि से तो यह अपराध के लिए क्षमा माँगने का और कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से अपने जीवन को ब्रह्मपरायण बनाने का संदेश देता है । ऋषियों की तरह हमारा जीवन भी संयमी, तेजस्वी, दिव्य, ब्रह्मप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करनेवाला हो – ऐसी मंगल कामना करते हुए ऋषियों और ऋषिपत्नियों को मन-ही-मन आदरपूर्वक प्रणाम करते है। इस मौके पर क्षेत्र के विभिन्न गांवों के लोग ऋषि पंचमी के मौके पर पूजन और कथा श्रवण भी किये।

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