Home साहित्य लघुकथा: सतत योग-अलका पाण्डेय

लघुकथा: सतत योग-अलका पाण्डेय

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हमारे मोहल्ले में एक मात्र मेडिकल स्टोर था
मेडिकल स्टोर का मालिक अरुण बाबू बहुत ही रुखे स्वभाव के इंसान थे आजतक किसी से उन्होने न प्यार से बातचीत की न कभी किसी से दोस्ती ही की न किसी के दुख सुख से उनको मतलब सुबह नौ बजे दुकान में आ बैठते आंखो में मोटा सा चश्मा चहरे पर नाराज़गी का भाव मानो सारे जमाने का दर्द अरुण बाबू के सिने में दफन है ।
इधर योगा सप्ताह के चलते पूरा मोहल्ला चटाई ले कर बग़ीचे में सुबह सुबह पहूच जाते योगा मास्टर मुफ़्त में सबको योग सिखा रहे थे आज आखरी दिन था योग का सब लोग जाने के बाद में मैने योग मास्टर से बात की आप रोजयहां आकर योग कराये , चाहे तो फिस लेकर कराये एक सप्ताह से क्या होगा । इन्होंने कहाँ समय नही है आप तो सिख ही गये है आप कराया करे और वो चले गये ।
मैं कुछ सोचता हुआ अरुण बाबू की दुकान के सामने से गुज़रा तो देखा अरुण बाबू बहुत ज़ोर ज़ोर से हंस रहे है , मैं चिंता में पड़ गया क्या हो गया हमेशा दुनियाँ से नाराज रहने वाला आज अकेले ही हँसे जा रहा है , मुझसे रहा न गया चिंता हो गई सो मैं अंदर गया और बोला , अरे अरुण बाबू क्या हो गया , अकेले ही हंस रहे हो क्या लाटरी लग गई है
हाँ हाँ यही समझो आप लोग योग सप्ताह मना रहे थे न उसी की खुशी मना रहा हूँ ….हा हा हा
सारी दुकान खाली … हा हा हा
बाम , आंयोडेक्स , नीलगिरी तेल
पेनकिलर गोलियाँ ,स्प्रे का सारा पुराना माल ख़त्म सारी एक्पाईरी डेट का माल ..माल दे गया यह योग सप्ताह ने तो मेरा माल ही समाप्तकरा दिया वाह वाह योग … हा हा हा
में बुत बन अरुण बाबू को हँसते देखता रहा मानो वह हमारी योग साधना की धज्जियाँ उड़ा रहा था ।
मेरा निर्णय निंश्चय में बदल गया यह योग सप्ताह भर नही मैं हमेशा सतत चलाऊँगा ताकी लोगो को अरुण बाबू के पास से फिर कभी बाम , आंयोडेक्स आदि की जरुरत न पड़।

अलका पाण्डेय – मौलिक

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