रिपोर्ट : पप्पूजी यादव
आखिर समाज सेवा है क्या? उसका स्वरूप क्या है? यह आज तक कोई नहीं समझ पाया। हमें तो अपने धर्म ग्रंथों से यही सन्देश पाया है की सहृदय, दयालु, परोपकारी और दानशील बनो-अब यह पता नहीं है की इससे समाजसेवा होती है की नहीं।
आए दिन कहीं न कहीं सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो कहीं नाच-गाने के कार्यक्रमों को ही प्रतियोगिता के रूप में पेश किया जाता है जिसके विजेता अपना अगला कार्यक्रम ‘समाज सेवा” बताते हैं। कई बडे लोग अपने नाम के आगे समाज सेवी का परिचय लगवाते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी भी और कुछ नहीं तो अपने नाम के आगे ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ शब्द लगवाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। कहा जाता है जो कुछ नहीं कर सकता वह राजनीति में चला जाता है और जो नहीं कर सकता वह समाज सेवा में चला जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह हो गई है की अब समाज सेवा के लिए धन जुटाने हेतु प्रतिष्ठित खेलों के मैच और नाच-गाने के कार्यक्रम भी आयोजित किये जाने लगे हैं-उनसे कितनी सेवा होती है कभी पता ही नहीं चलता।
वैसे किसी गरीब की आर्थिक सहायता करना, असहाय बीमार की सेवा सुश्रुपा करना और जिन्हें विद्या की आवश्यकता है पर वह प्राप्त करने में असमर्थ हैं उनका मार्ग प्रशस्त करना ऐसे कार्य हैं जो हर समर्थ व्यक्ति को करना चाहिए। इसे दान की श्रेणी में रखा जाता है और यह समर्थ व्यक्ति का दायित्व है कि वह करे। इतना ही नहीं करने के बाद उसका प्रचार न करे क्योंकि यह अहंकार की श्रेणी में आ जायेगा और उस दान का महत्व समाप्त हो जायेगा। कहते भी हैं कि नेकी कर और दरिया में डाल। अगर हम अपनी बात को साफ ढंग से कहें तो उसका आशय यही है कि व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है पर समाज सेवा एक ऐसा शब्द है जो कतिपय उन कार्यों से जोडा जाता है वह किये तो दूसरों के जाते हैं पर उसमें कार्यकर्ता की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढाने में सहायक होते है- और कहीं न कहीं तो इसके लिए उनको आर्थिक फायदा भी होता है।
आजकल टीवी और अखबारों में तथाकथित समाज सेवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम आते रहते हैं। अगर उनकी कुल गणना की जाये तो शायद हमारे समाज को विश्व का सबसे ताक़तवर समाज होना चाहिऐ पर ऐसा है नहीं क्योंकि उनसे कोई व्यक्ति लाभान्वित नहीं होता जो समाज की एक भौतिक और वास्तविक इकाई होता है। समाज सेवा बिना पैसे के तो संभव नहीं है और समाज सेवा के नाम पर कई लोगों ने इसलिए अपनी दुकाने खोल रखीं है ताकि धनाढ्य वर्ग के लोगों की धार्मिक और दान की प्रवृति का दोहन किया जा सके। कई लोग समाज सेवा को राजनीति की सीढियां चढ़ने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आजकल समाज सेवा की नाम पर जो चल था है उसे देखते हुए तो अब लोग अपने आपको समाज सेवक कहलाने में भी झिझकने लगे हैं। समाज सेवा एक फैशन हो गया है।
एक आदमी उस दिन बता रहा था कि सर्दी के दिनों में एक दिन वह एक जगह से गुजर रहा था तो देखा एक कार से औरत आयी और उसने सड़क के किनारे सो रहे गरीब लोगों में कंबल बांटे और फुर्र से चली गयी। वहाँ कंबल ले रहे एक गरीब ने पूछा’आप कौन हैं, जो इतनी दया कर रहीं है?’
उसने हंसकर कहा-‘मैं कोई दया नहीं कर रहीं हूँ। ईश्वर ने जो दिया है उसे ही बाँट रही हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। यह सब भगवान की रची हुई माया है।’
उस आदमी ने वहाँ खडे होकर यह घटना देखी थी। उसका कहना था कि ‘कंबल भी कोई हलके नहीं रहे होंगे।’
ऐसे अनेक लोग है जो सच में समाज सेवा करते हैं पर प्रचार से दूर रहते हैं. कुछ धनी लोग दान करना चाहते हैं पर नाम नहीं देना चाहते इसलिए वह बिचोलियों का इस्तेमाल करते हैं जो समाजसेवा की आड़ में उनके पास पहुच जाते हैं, और चूंकि उनका मन साफ होता है इसलिए कोई सवाल जवाब नहीं करते-पर इससे तथाकथित समाज सेवियों की बन आती है।
उस दिन अखबार में पढा कि एक गरीब लड़की के इलाज के लिए पैसे देने की पेशकश लेकर एक आदमी उनके दफ्तर में पहुंच गया पर उसने शर्त रखी कि वह उसका नाम नहीं बताएँगे। उस अखबार ने भी उसकी बताई राशि तो छाप दी पर नाम नहीं लिखा। अब चूंकि वह एक प्रतिष्ठित अखबार है तो वह रकम वहाँ तक पहुंच जायेगी पर कोई तथाकथित समाज सेवी संस्था होती तो हो सकता है उसके लोग उसमें अपनी भी जुगाड़ लगाते। मैंने पहले ही यह बात साफ कर दी थी की व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है समाज सेवा थोडा भ्रम पैदा करती है। व्यक्ति की अपनी जरूरतें होती हैं और उसको समाज से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।
अब तो कई बार समाज सेवा शब्द भी मजाक लगने लगता है जब उसके नाम पर संगठन बनाए जाते हैं और कहीं तो आन्दोलन भी चलते हैं। आन्दोलन शब्द ही राजनीति से जुडा है पर उसमें विवाद होते हैं उसकी वजह से सामाजिक आन्दोलन के नेता अपने को सामाजिक कार्यकर्ता ही कहते हैं। यह अलग बात है की सुविधानुसार वह करते तो किसी न किसी तरह वह सुर्खियों में बने रहते हैं। सच तो यह है समाज सेवा अभी तक साफ सुथरा शब्द है इसलिए कई लोग इसकी आड़ में अपनी छबि चमकाते हैं। ऐसा नहीं है की देश में गरीबों और निराश्रितों की सेवा करने वाले संगठन नहीं है पर वह इस प्रचार से दूर रहते हुए अपने काम करते हैं और जो प्रचार करते हैं वह व्यक्ति की सेवा कम अपने नाम के लिए ज्यादा काम करते हैं। उनका लक्ष्य समाज सेवा यानि आत्म प्रचार और विज्ञापन है।
अगर देखा जाये तो समाज सेवा अब दाम देने और लेने वाले की बीच दलाली का काम हो गया है जिसमें उससे जुडे लोग कमीशन के रूप में कहीं थोडी तो कहीं पूरी की पूरी रकम डकार लेते हैं.