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जातिवाद और परिवारवाद के बीच दम तोड़ता समाजवाद

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एम—वाई के सहारे सत्तासुख की चाह में लगी सपा कैसे बढ़ायेगी समाजवादी आन्दोलन
सपा के साथ रही गैर यादव जातियों का क्यों हुआ सपा से मोह भंग

उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव की बयार चल रही है। सूबे की दो पार्टियों के बीच ही वर्चस्व की जंग होनी है। एक पार्टी तो विकास का नारा देकर केन्द्र व प्रदेश में सत्ता का सुख उठा रही है, जबकि मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी सत्ता पाने के लिये छटपटा रही है। वहीं समाजवादी पार्टी जिसके गठन का मुख्य आधार ही समाजवाद था। पूर्ववर्ती समाजवाद समर्थक दलों के गर्भ से निकला समाजवादी आन्दोलन का युग मुलायम सिंह यादव के साथ ही खत्म होता दिखायी दे रहा है। जिस पार्टी की नींव ही मुलायम सिंह ने समाजवाद पर रखा था। वहीं समाजवाद जब जातिवाद के रास्ते परिवारवाद की तरफ बढ़ा तो उसका दम घुटने लगा। देश भर में सामाजिक-आर्थिक बदलाव के व्यापक दर्शन से आरंभ होकर पार्टी अंतत: परिवारवाद की दहलीज पर दम तोड़ती दिखाई देने लगी है।

गौर करें तो समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक उत्थान डॉ.राम मनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन से हुआ। लोहिया स्वतंत्रता संग्राम की उपज थे। लोहिया ने एक स्वतंत्र समाजवादी अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी। जो सामंतवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ थी। यानी पूँजी और निजी संपत्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था में जगह थी, लेकिन वह ज़मींदारी और शोषण के ख़िलाफ़ थी। 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करके पिछड़ों को आरक्षण देने की शुरुआत होते ही मुलायम सिंह यादव का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर गया। जनता दल को पीछे छोड़ कर मुलायम ने समाजवादी पार्टी की नींव रखी।

आरंभ में सभी जातियों के समाजवादियों का समर्थन मिला। मुलायम सिंह यादव के साथ बेनी प्रसाद वर्मा (कुर्मी), जनेश्वर मिश्र ( ब्राह्मण) राम शरण दास (गूजर) और मोहन सिंह (राजपूत) जैसे बड़े नेता मौजूद थे। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव में इनका दबदबा बढ़ा और जीत का स्वाद चखा, वैसे-वैसे इनका आधार संकुचित होने लगा।

दरअसल, चुनावी जीत के लिए सपा ने एम-वाई का नया फ़ॉर्मूला खोज लिया। एम-वाई का मतलब है मुस्लिम और यादव। कुछ समय तक ग़ैर यादव पिछड़ी जातियाँ इनके साथ बनीं रहीं, लेकिन धीरे-धीरे अन्य जातियों का मोहभंग होना शुरू हो गया।

मुलायम के भाई शिवपाल यादव पार्टी संगठन में सबसे मज़बूत हो गए। दूसरे भाई राम गोपाल यादव का रुतबा भी बढ़ा। आगे चलकर जब उत्तराधिकारी चुनने की बारी आयी तब मुलायम ने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी। अखिलेश के पास कोई ख़ास राजनीतिक अनुभव नहीं था। उनमें मुलायम जैसी राजनीतिक समझ और दक्षता भी नहीं थी, लेकिन उत्तराधिकार उन्हीं को मिला। नाराज़ शिवपाल यादव ने पार्टी से अलग हो कर अपनी पार्टी बना ली। इस तरह मुलायम ने समाजवाद से जो यात्रा शुरू की थी वह जातिवाद की टूटी-फूटी सड़क से होकर परिवारवाद पर आकर ख़त्म होती दिखाई दे रही है। फिलहाल जिस तपती ज़मीन पर सपा पहुँच गई हैं, वहाँ से आगे का रास्ता तो है लेकिन आसान नहीं है।

सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अखिलेश अपनी ज़मीन को बचाने के लिए उतनी मेहनत कर सकते हैं जितनी मेहनत मुलायम करते थे। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या उनके पास कोई ऐसी योजना है जिसके जरिए बाक़ी जातियाँ खासकर ग़ैर यादव और दलितों को जोड़ा जा सके। यहीं नही सवर्णों भी लोहिया के समाजवादी विचारधारा के समर्थकों की लंबी कतार है। लेकिन जिस तरह अखिलेश एम—वाई के फार्मूले पर ही डटे है, क्या अन्य जातियों को जोड़कर मिशन 2022 का सपना साकार कर पायेंगे। वर्तमान हालात को देखते हुये अभी यह दु:स्वप्न नजर आता है।

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