आज 15 अप्रैल है, लॉक डाउन खुल चुका है। विभिन्न स्थानों पर फँसे हुए लोग अपने-अपने घर जाने की होड़ में लगे हैं। इतने दिनों के बाद लॉक डाउन खुलने से स्टेशन, बस अड्डे, ऑटो स्टैंड, सड़कों पर अतिरिक्त भीड़ भी हो गयी है। इस भीड़ की शोर बीते 21 दिन की शान्ति भंग करके लोगों के शांतिपूर्ण सादगी भरे जीवन में एक बार फिर से खलल डाल रही थी। आज 15 अप्रैल को तड़के 4 बजे मैं भी देश की राजधानी से इसी भीड़ का हिस्सा बनते हुए घर के लिए रवाना हो पड़ा। अंदेशा था कि स्टेशन जाने पर स्क्रीनिंग होगी तब ट्रेन में बैठने की अनुमति दी जाएगी इसलिए दिल्ली में स्थित अपने करीबी रिश्तेदार के घर से जल्दी निकल पड़ा था।
संकट की घड़ी में करीबी रिश्तेदार ही काम आते हैं। 21 मार्च को राजस्थान में अचानक लॉक डाउन जैसा माहौल बनने से वहाँ से घर के लिए निकल गया था लेकिन 22 मार्च को जनता कर्फ्यू होने से दिल्ली में रह गया था ऐसे में मेरे यही करीबी रिश्तेदार काम आए बेटे-भाई की तरह बिना किसी मानसिक दबाव में दिल्ली जैसे शहर में अपने घर में रखा। क्योंकि दिल्ली अब दिल वालों की नहीं रही, ऐसे में आपको यदि कोई दिल वाला मिल जाता है तो आपसे बड़ा भाग्यशाली कोई नहीं है वही मेरे साथ भी हुआ।
खैर जो भी हो आज तो केवल घर जाने की खुशी हो रही थी इतने दिनों के बाद स्वतंत्र जो हुआ था। मेरी टिकट एक अत्यन्त तेज एक्सप्रेस गाड़ी से दिल्ली से वाराणसी तक के लिए था।उस टिकट पर वैधता के लिए मुहर लगाया गया। इतने दिनों पर लॉक डाउन खुला, सबको अपनी अपनी ड्यूटी करनी थी। थोड़ी देर बाद स्टेशन पर ही कार्यरत एक टिकट परीक्षक (टीटी) महोदय आये, वे मेरा टिकट चेक किये। मैंने टीटी महोदय को अपना वैध टिकट दिखाया लेकिन उन्होंने 100 रुपये की माँग करते हुए उस टिकट पर एक मुहर और लगाने की बात कही। उन महोदय के हिसाब से जब दूसरी मुहर लग जायेगी तब सीट मिलेगी अन्यथा खड़े होकर जाना पड़ेगा। लेकिन मेरे मन में आया कि टीटी महोदय जानबूझकर गलत तरीके से पैसा लेना चाह रहे हैं इसलिए मैंने नहीं दिया लेकिन ऐसा नहीं था। सच में वो मुहर लगने के बाद ही सीट मिल पाती, वो तो मेरे ऊपर ही ईमानदारी का भूत सवार था जो उस बेचारे टीटी पर शक कर रहा था।
ट्रेन का इंतजार कर रहा था तो पता चला ट्रेन की जगह बस आएगी और रेलवे स्टेशन के बाहर बस ही आयी। देखा तो बस में चढ़ने की जगह नहीं और पछतावा होने लगा कि काश टीटी महोदय को 100 रुपये दे दिया होता तो जगह आसानी से मिल जाती। मुझे ऐसा लगा कि मेरे परिचय के लोग भी इस बस में जा रहे हैं लेकिन मैंने जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया। किसी तरह भीड़युक्त बस में चढ़ गया। बस चलने के थोड़ी देर बाद मुझे बस की सीट खाली दिखी तो मैं बस की सीट पर एडजस्ट करते हुए बैठ गया। सम्भवतः 3 सीट वाली आगे से चौथी सीट थी। कुछ देर बाद बस सभी को पानी पिलाने के लिए रुकी। 4 लेन की सड़क पर बस उल्टे तरफ मतलब दाहिने तरफ से ही जा रही थी तो वहीं दाहिने लेन पर बायीं ओर खड़ी की गई थी। सड़क की बायीं लेन पर और बायीं लेन पर सारी ट्रक खड़ी थीं, सभी यात्रियों को ट्रकों के बीच से होकर सड़क पार करनी पड़ी। सड़क पर ही एक आश्रम जैसा कुछ था उसके सामने सार्वजनिक जलनिगम पेयजल की व्यवस्था थी (जैसे सड़कों पर सीमेंट में वाटर टैब लगाकर पेयजल की व्यवस्था करते हैं)। सबके साथ मैं भी उतर कर चेहरे से मास्क हटाकर हाथ मुँह धोकर पानी पीकर वापस आया। हाथ धोते समय मेरे परिचित अरुण मिश्र जी दिख जाते हैं। वे पत्रकार हैं और व्यवसायी हैं और मुझे छोटे भाई जैसा प्यार देते हैं। उन्होंने मेरी यात्रा के बारे पूछा जिसका वर्णन करते हुए मैं बस में वापस चढ़ा तो देखा कि लगभग पूरी बस खाली थी शायद सब लोग चढ़े नहीं थे। उस समय मैं देखता हूँ कि जिस सीट पर मैं बैठा था उस सीट पर दो लोग जिनमें एक तो बकायदा नीली वाली पुरानी लुंगी पहने और दूजे भी कुछ गन्दा सा पैजामा पहने हुए सीट पर बैठे थे, दोनों पसीने तरबतर दिख रहे थे। मैंने उस सीट पर देखा तो अनायास अनजाना सा भय लगने लगा। निःसन्देह वह भय आजकल प्रचलित कोरोना वायरस का था।
फिर मैं उसके पीछे सीट पर बैठने गया। उस पर एक सीट खाली दिखी। बगल वाली सीट पर मेरे स्कूल समय के मित्र फतेश यादव दिखे और उन्होंने बताया कि उक्त सीट पर बाकी दो लोग मेरे ही मित्र बृजेश यादव और शिवप्रकाश पाल हैं। फतेश ने बताया कि शिवप्रकाश जी ने मेरे लिए खाना रखा है। आपको बताऊँ कि मुझे भोजन ग्रहण करने से भी डर लग रहा था कि कहीं भोजन के माध्यम से शरीर में खतरनाक वायरस न घुस जाय, इसलिए मैंने भोजन ग्रहण नहीं किया। किसी तरह दोपहर लगभग 3 बजे जब वाराणसी पहुँचा तो पता चला कि सब कुछ लॉक डाउन है और बताया गया सबने आपस में सबको छुआ है इसलिए सबको तेलंगाना में 28 दिनों के लिए क्वारंटाइन सेंटर के लिए भेजा जाएगा। और ये सुनकर मेरे रोने की सीमा न रही, यह सोचकर कि इतने दिन घर से दूर रहा, अब इस कोरोना वायरस की वजह से फिर से घर से दूर रहना पड़ेगा।
तब तक मेरी नींद टूट गयी और देखा तो दिनांक 09/04/2020 को रात के 3 बज रहे थे । वहम टूटा क्योंकि ये हकीकत नहीं, मात्र एक स्वप्न था। लेकिन स्वप्न की अदृश्य भयावहता नजर आ रही थी। निश्चित रूप से यह एक बुरा सपना था जिसको मैं भविष्य में सच होता नहीं देखना चाहूँगा।सुबह होते तक मैंने विचार किया कि क्या हम अपने देश के लिए, अपने मानव समाज को स्वस्थ बनाने के लिए सहयोग नहीं कर सकते। सहयोग भी ऐसा नहीं चाहिए कि जो हम नहीं कर सकते। केवल एक छोटा सा सहयोग चाहिए कि लॉक डाउन के समय तक घर में रहें, स्वस्थ रहें एवं स्वस्थ समाज के निर्माण में अपना सहयोग दें। यह सहयोग हमारे देश के साथ-साथ हमारे स्वयं के लिए भी है। हमारा यह सहयोग हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए भी प्रेरणादायक होगा।