Home मुंबई भारत रत्न डाॅक्टर बाबासाहेब आंबेडकर की 129 वीं जयंती पर विशेष

भारत रत्न डाॅक्टर बाबासाहेब आंबेडकर की 129 वीं जयंती पर विशेष

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आधुनिक भारत के निर्माता भारतरत्न डॉ.बाबा साहब आंबेडकर

भारत के स्वर्णिम गौरव का सूत्र कहीं खो गया था ऐसे में बाबा साहब ने स्वर्णयुगीन भारत के रीति नीति का गहन अध्ययन किया। जहाँ एक ओर उन्होंने भारतीय अर्थशास्त्र का अनुदित अध्ययन किया वहीं दूसरी ओर संसार में कार्ल मार्क्स के सिद्धांत की धूम मची थी, भला वे उससे कैसे अछूते रह पाते? यद्यपि भारतीय मूल सभ्यता पर मार्क्स के सिद्धांत शतप्रतिशत खरे नहीं उतर रहे थे, तथापि कई सभ्यताओं का आक्रमण झेल चुका भारत भी अपनी मूल सभ्यता से डिगता जा रहा था। यह विचलन भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचों में सेंध लगाते हुए उसकी संस्कृति को पूरी तरह तबाह करने की ओर अग्रसर हो रहा था। भारतीय कृषि पर इसका सर्वाधिक असर पड़ा। परिणाम स्वरूप भारतीय समाज संरचना का संतुलन बिगड़ने लगा। किसान केंद्र से गायब होने लगे। उनके जीवन की समृद्धि लुटने लगी। देश में मजदूर श्रमिकों की संख्या बढ़ने लगी, साथ ही साथ एक नये किस्म के मध्यम वर्ग का उदय होने लगा जो मानवीय मूल्यों के मुकाबले कागज पर पैदा किये गये।आर्थिक शक्ति को ही सब कुछ स्वीकार किया जाने लगा। ऐसे में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने तेजी से परिवर्तित होते सामाजिक संक्रमण काल में बौद्धकालीन भारतीय सभ्यता के मानदंडों का चुनाव किया। उनके सिद्धांत यदि चरितार्थ हो पाते तो बहुत हद तक संभव था कि भारत समृद्ध राष्ट्रों के मुकाबले एक समृद्धतम राष्ट्र होता। 32 डिग्रीयाँ लेने वाले और 9 भाषाओं पर अपनी पकड़ रखने वाले वे दुनिया के सबसे महान आदर्श विद्वान,मानवतावादी महामानव थे।

उनके समकालीन सभी भारतीय नेताओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनमें से वे ही इकलौते ऐसे सक्षम युगद्रष्टा थे, जो भारत को शक्तिशाली बना सकते थे। संभवतः उन्होंने सौ वर्ष पहले ही दुनिया का भावी चित्र देख लिया था, जिसके केंद्र में एक सर्वांगीण विकसित सभ्यता का स्वरुप था। वास्तव में यह हमें अब अनुभव हो रहा है कि पिछले कुछ दशकों में हमने क्या क्या खोया है। हमारी आत्मनिर्भरता का मेरु टूट गया, स्वावलंबन का धैर्य खो गया। जिसके अभाव में न कोई स्वतंत्र हो सकता है और न स्वाभिमानी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें इस बात से भी मिलता है कि आज भी हमारे देश में छात्र, डॉक्टर, इंजीनियर वैज्ञानिक, उद्योगपति और तो और हमारे देश‌ के प्रधानमंत्री भी हर बात में अमेरिका, जर्मनी, और रूस का रूख करते हैं। अतः स्पष्ट है कि बाबा साहब जितने प्रासंगिक पहले थे, आज भी हैं और भविष्य में भी उतने ही रहेंगे। इसको जाऩने के लिए सर्वप्रथम हमें उनके बारे में कुछ अन्य बातों की गहन पड़ताल कर लेना आवश्यक है।

अमेरिका की विख्यात कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मास्टर ऑफ आर्टस् करने के लिए उन्होंने सन 1913में प्रवेश लिया और 1915 में वे एम.ए.पास हुए। उनकी पहली थीसिस का शीर्षक था ‘ऐंशिएंट इंडियन कॉमर्स ‘। फिर ‘नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया’ शीर्षक‌ से उन्होंने एक और थीसिस प्रस्तुत की । युवावस्था से ही भारत रत्न डाक्टर बाबासाहेब को भारतीय अर्थव्यवस्था में गहरी रूचि थी। उनकी तीसरी थीसिस थी ‘दि प्राब्लम ऑफ रूपी’, जो आगे चलकर एक पुस्तक स्वरूप में प्रकाशित हुई। यही पुस्तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का आधार बनी। कोलंबिया से ही उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की, जिसका विषय था – ‘द इवाल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फिनैंस इन ब्रिटिश इंडिया’। इसी थीसिस ने ब्रिटिश शासकों का ध्यान खींचा और वे यह जान गये कि यह एक महान् अर्थशास्त्री है। बाबासाहब ने राष्ट्र निर्माण के जिस मार्ग पर कदम बढ़ाया, उस मार्ग पर कानूनी पेचीदिगियां कदम-कदम पर उन्हें परेशान करने लगी। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भी बैरिस्टर बनना एक जरूरी योग्यता सी बन गई थी। अतः उन्होंने लंदन जाकर उस योग्यता की भी पूर्ति कर ली। उन्होंने अपने इसी कानूनी ज्ञान का उपयोग संविधान लिखने में किया।

जब भारत सन 1899 – 1900 के मध्य भयंकर अकाल का शिकार हो गया था। समूचे अकाल प्रभावित क्षेत्र से लोग और जानवर भूखमरी का शिकार हो चुके थे। तब 1918 में बाबासाहब ने एक पेपर लिखा जिसका शीर्षक था- ‘स्माल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज’। इसमें वे एक अलग ही सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, ‘कृषि को उद्योग घोषित करो। भारत में करोड़ों किसान छोटी-छोटी जोतों पर सदियों से खेती करते आए हैं, पर वे कभी भी नफा -नुकसान का ध्यान नहीं रखते और परेशानी भरा जीवन जीते हैं। जब कृषि उद्योग बन जाएगी तो जिस सिद्धांत पर उद्योग चलते हैं, उसी पर कृषि भी चलेगी, अर्थात् सरप्लस पैदा करना और घाटे -मुनाफे का हिसाब रखना अपने आप सभी को आ जाएगा। जिस प्रकार बिना सरप्लस पैदा किए उद्योग नहीं चलता, उसी तरह बिना सरप्लस के किसानी भी नहीं होनी चाहिए‌।’

स्वाधीन भारत का पहला लोकसभा चुनाव 1951-1952 में हुआ। इस चुनाव में उनकी पार्टी ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ भी सत्ता प्राप्त करने की स्पर्धा में उतर गयी। उन्होंने पार्टी का जो मेनिफेस्टो जारी किया, उसका सार तत्व यह था कि ‘जब तक भारत की कृषि व्यवस्था में बदलाव नहीं लाया जायेगा, तब तक भारत एक महान औद्योगिक सभ्यता का रुप नहीं ले सकेगा।”

अतः वे अपने मेनिफेस्टो वादा करता है कि –
1.कृषि का मशीनीकरण,
2. छोटी जोतों को हटाकर बड़े फार्मों पर खेती,
3. उत्कृष्ट बीजों और खादों का इस्तेमाल।
किन्तु उन्हें अपने चुनावी राजनैतिक अभियान में सफलता नहीं मिल सकी, तथापि भारत को सशक्त और उन्नत बनाने का इरादा संघर्ष करता ही रहा, किन्तु उनकी बात लोग नहीं समझ सके। अब से भी हम उनके सिद्धांतों पर चलने लग जायें तो भी हमारा देश विश्व पटल पर अपना स्वर्णिम गौरव पुनः पाने में सफल हो जायेगा।

चंद्रवीर बंशीधर यादव
(शिक्षाविद्)
संपर्क-20बी ,यादवेश को.हा.सो.,
देवकी शंकर नगर ,
लेक रोड,तुलशेत पाडा,
भांडुप(पश्चिम) मुंबई 400078
भ्रमण ध्वनी क्रमांक-9322122480

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