मातृभाषा की महत्ता के बारे में यदि सीखना है तो जापानियों व चीन के लोगों से सीखा जा सकता है जब वे अमेरिका में जाते हैं तो वहाँ भी अपनी मातृभाषा में ही बातें करते हैं। और हम भारतवासी है कि भारत में रहते हैं फिर भी अपनी हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में अंग्रेजी के शब्द बोलने लगते हैं। और अपने को अंग्रेज सिद्ध करने के चक्कर में अपनी मातृभाषा का परोक्ष रूप से अनादर करते है। करे क्यों न आदत जो पड़ गयी है ! आजादी मिले 70 वर्ष से भी अधिक समय हो गया, बाहरी गुलामी की जंजीर तो छूटी लेकिन भीतरी गुलामी, दिमागी गुलामी अभी तक नहीं गयी।
1917 के राष्ट्रभाषा सम्मेलन में कई नेताओं के भाषण हुए। सबने अंग्रेजी में बोला, यहाँ तक कि सभापति का भाषण भी अंग्रेजी में हुआ। गांधीजी उन दिनों हिन्दी अच्छी नहीं बोल पाते थे परंतु जब उनकी बोलने की बारी आयी तो वे हिन्दी में ही बोले। उसके बाद तो वहाँ का सारा वातावरण ही बदल गया। फिर तो कोई भी व्यक्ति अंग्रेजी में नहीं बोला। शाम को जब लोकमान्य तिलक का भाषण हुआ तो वे भी हिन्दी में ही बोले। उन्होंने कहा कि ‘‘आज मैं पहले-पहल हिन्दी में बोल रहा हूँ। मेरी भाषा में कितनी गलतियाँ होंगी, मैं नहीं जानता लेकिन मैं मानता हूँ कि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है और राष्ट्र स्तरीय पर हमें उसीको बढ़ावा देना चाहिए।
इस घटना के बाद तो तिलकजी ने हिन्दी भाषा को खूब प्रोत्साहित किया। वे कहते थे कि ‘‘सबको अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए बच्चों को सात-आठ वर्ष तक अंग्रेजी पढ़नी पड़ती है। जीवन के ये आठ वर्ष कम नहीं होते। ऐसी स्थिति विश्व के किसी और देश में नहीं है। ऐसी शिक्षा-प्रणाली किसी भी सभ्य देश में नहीं पायी जाती।” जिस प्रकार बूँद-बूँद से घड़ा भरता है, उसी प्रकार समाज में कोई भी बड़ा परिवर्तन लाना हो तो किसी-न-किसीको तो पहला कदम उठाना ही पड़ता है और फिर धीरे-धीरे एक कारवाँ बन जाता है व उसके पीछे-पीछे पूरा समाज चल पड़ता है।
हालांकि विश्व पटल पर भारत के कुछ नेताओ ने भी अपने मातृभाषा का सम्मान बढाया जिनमें श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री नरेन्द्र मोदी और श्रीमती सुषमा स्वराज आदि का नाम शामिल है। हमें भी अपनी राष्ट्रभाषा को उसका खोया हुआ सम्मान और गौरव दिलाने के लिए व्यक्तिगत स्तर से पहल चालू करनी चाहिए। एक-एक मति के मेल से ही बहुमति और फिर सर्वजनमति बनती है। हमें अपने दैनिक जीवन में से अंग्रेजी को तिलांजलि देकर विशुद्ध रूप से मातृभाषा अथवा हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्रीय अभियानों, राष्ट्रीय नीतियों व अंतराष्ट्रीय आदान-प्रदान हेतु अंग्रेजी नहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी ही साधन बननी चाहिए।
जब कमाल पाशा अरब देश में तुर्की भाषा को लागू करने के लिए अधिकारियों की कुछ दिन की मोहलत ठुकराकर रातोंरात परिवर्तन कर सकते हैं तो हमारे लिए क्या यह असम्भव है ? गांधीजी कहते थे कि ‘‘अंग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मुक्त होकर और समाज को मुक्त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं। अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये दी जानेवाली शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों व प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूँ या (वे इसके लिए तैयार न हों तो) उन्हें बरखास्त करा दूँ। मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा। वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आयेंगी। यह एक ऐसी बुराई है जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए।” आज सारे संसार की आशादृष्टि भारत पर टिकी है। हिन्दी की संस्कृति केवल देशीय नहीं सार्वलौकिक है क्योंकि अनेक राष्ट्र ऐसे हैं जिनकी भाषा हिन्दी के उतनी करीब है जितनी भारत के अनेक राज्यों की भी नहीं है। इसलिए हिन्दी की संस्कृति को विश्व को अपना अंशदान करना है।
राष्ट्रभाषा राष्ट्र का गौरव है। इसे अपनाना और इसकी अभिवृद्धि करना हमारा राष्ट्री य कर्तव्य है। यह राष्ट्र की एकता और अखंडता की नींव है। आइए, हिन्दी को सुदृढ़ बनाकर राष्ट्ररूपी भवन की सुरक्षा करें। और अपनी मातृभाषा के उत्थान में सहयोग करें। क्योकि अपनी भाषा के माध्यम से जो चीज हम सीख व समझ सकते है वह किसी दुसरी भाषा के माध्यम से असंभव है। इसका सीधा सा परिणाम आज हम देख पा रहे है कि भारत के बच्चों को मातृभाषा में नही बल्कि अन्य भाषा में शिक्षा दी जाती है जो उनके बौद्धिक विकास के लिए घातक सिद्ध होता है। जबकि कुछ अन्य देशो पर नजर डाले तो वहां बच्टों की पढाई उनकी मातृभाषा में होती है जिससे वे नित नई कामयाबी हासिल करते है। हमें भी चाहिए कि देश के बच्चों को मातृभाषा में ही शिक्षा दें। रही भाषाओं के ज्ञान की बात तो कई भाषा बोलचाल के लिए सीखें लेकिन शिक्षा और अनुसंधान मातृभाषा में ही हो।