पंडित अतुल शास्त्री जी कहते है कि माता तारा को तांत्रिकों की देवी माना जाता है। अश्विन मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा रूपी देवी की साधना करना तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है। जो भी साधक या भक्त माता की मन से प्रार्थना करता है उसकी कैसी भी मनोकामना हो वह तत्काल ही पूर्ण हो जाती है। शत्रुओं का नाश करने वाली सौन्दर्य और रूप ऐश्वर्य की देवी तारा आर्थिक उन्नति और भोग दान और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं।
तांत्रिक पीठ
तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है। यह पीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में स्थित है। इसलिए यह स्थान तारापीठ के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस मंदिर में वामाखेपा नामक एक साधक ने देवी तारा की साधना करके उनसे सिद्धियां हासिल की थी।
तारा देवी का एक दूसरा मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से लगभग 13 किमी की दूरी पर स्थित शोघी में है। देवी तारा को समर्पित यह मंदिर, तारा पर्वत पर बना हुआ है। तिब्बती बौद्ध धर्म के लिए भी हिन्दू धर्म की देवी ‘तारा’ का काफी महत्व है। नीलकमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं। ये व्याघ्रचर्म से विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करनेवाली हैं। शत्रुनाश, वाक्शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिये भगवती तारा अथवा उग्रतारा की आराधना की जाती है। रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति भगवती तारा
महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाववाली और सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी कही गयी हैं भगवती तारा के तीन रूप हैं- तारा, एकजटा और नीलसरस्वती। तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते हए भी सबकी शक्ति समान और एक है। भगवती तारा की उपासना मुख्य रूप से तन्त्रोक्त पद्धति से होती है जिसे आगमोक्त पद्धति भी कहते हैं। इनकी उपासना से समान्य व्यक्ति भी बृहस्पति के समान विद्वान् हो जाता है।
भारत में सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने भगवती तारा की आराधना की थी। इसलिये भगवती तारा को वसिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले भगवती तारा की आराधना वैदिक रीति से करनी प्रारम्भ की जो कि सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्यशक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे “चिनाचारा” [या चीनाचार] कहा जाता है, से भगवती तारा की उपासना करें। जब वसिष्ठ ने तान्त्रिक पद्धति का आश्रय लिया तब उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। यह कथा ‘आचार’ तन्त्र में वसिष्ठ मुनि की आराधना उपाख्यान में वर्णित है। इससे यह सिद्ध होता है कि पहले चीन, तिब्बत, लद्दाख आदि में तारा की उपासना प्रचलित थी।
‘महाचीन’ में तारा देवी की आराधना होने का वर्णन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। महाचीन अर्थात् तिब्बत को साधनाओं का गढ़ माना जाता है। तिब्बती लामाओं, या गुरुओं के पास साधनाओं की विशिष्ट तथा दुर्लभ विधियां आज भी मौजूद हैं। तिब्बती साधनाओं के सर्वश्रेष्ठ होने के पीछे भी उनकी आराध्या देवी मणिपद्मा का ही आशीर्वाद है। मणिपद्मा भगवती तारा का ही तिब्बती नाम है। इन्हीं की साधनाओं के बल पर वे असामान्य तथा असंभव लगने वाली क्रियाओं को भी करने में सफल हो पाते हैं। तारा महाविद्या की साधनाएं सबसे कठोर साधनाएं हुआ करती हैं। इनकी साधना में किसी प्रकार के नियमों में शिथिलता स्वीकार्य नहीं होती। नियमों का अच्छी तरह से पालन न होने पर ये साधनाएँ सफल नहीं हो पातीं। अतः सामान्य आराधकों को भक्तिपूर्वक माँ का केवल ध्यान एवं कवच, अष्टोत्तरशतनाम, हृदय आदि स्तोत्रों का पाठ करना चाहिये। ध्यान की महिमा, स्तोत्र पाठ से यहाँ तक कि मंत्र जप से भी अधिक बताई गई है। देवी तारा का प्रादुर्भाव मेरु-पर्वत के पश्चिम भाग में ‘चोलना’ नाम की नदी के या चोलत सरोवर के तटपर हुआ था, जैसा कि स्वतन्त्रतन्त्र में वर्णित है-
बिहार के सहरसा जिले में प्रसिद्ध ‘महिषी’ ग्राम में उग्रतारा का सिद्धपीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की तीनों मूर्तियाँ एक साथ है। मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि महर्षि वसिष्ठ ने यहीं भगवती तारा की उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी। तन्त्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘महाकाल-संहिता’ के गुह्यकालीखण्ड में महाविद्याओं की उपासना का विस्तृत वर्णन है उसके अनुसार भगवती तारा का रहस्य अन्यन्त चमत्कारजनक बतलाया गया है। पूरे विश्वास तथा श्रद्धा से आराधना करने पर माँ तारा निश्चित रूप से अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती हैं।