विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही यूपी सरकार के विकास कार्यों का हो रहा बखान
बढ़ रही मंहगाई और बेराजगारी से त्रस्त आम जनता आखिर कैसे करे सरकार का गुणगान
विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। सभी पार्टियां सत्ता पर काबिज होने की चाह में मछली रूपी वोटरों को फंसाने के लिये अपने लुभावने जाल फेंकना शुरू कर दी हैं। पूर्वं में सत्ता पर काबिज रही सपा बसपा अपने कार्यकाल के दौरान किये गये कार्यों का बखान करके जनता को लुभाने में लगी हैं तो भाजपा अपनी सरकार के साढ़े चार वर्ष पूरा होने पर आगामी चुनाव के मद्देनजर अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने में लगी है। प्रत्येक जिलों में कार्यक्रम आयोजित करके जनता को बताया जा रहा है कि देखिये हमने आपके लिये क्या—क्या कर दिया है। बस एक मौका और दीजिये बाकी कार्य पूरे हों जायेंगे, लेकिन पिछले एक वर्ष से अधिक समय कोरोना महामारी के कारण बढ़ी बेरोजगारी, छिन चुकी नौकरियां और उपर से मंहगाई की मार, भूख से छटपटाते लोग और इलाज न मिल पाने की वजह से हुई मौतों का रिपोर्ट कार्ड कौन देगा। इसपर कोई बात नहीं करना चाहता।
गौरतलब हो कि कोरोना काल में बढ़ती बेराजगारी के कारण हुई आय में कमी के चलते महज एक साल के अंदर प्रति व्यक्ति कर्ज का बोझ 34 हजार रुपये (2019-20) से बढ़कर 52 हजार रुपये (2020-21) हो गया है। कर्ज को अगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखें, तो वित्त वर्ष 2020-21 में घरेलू कर्ज बढ़कर जीडीपी का 37.3 प्रतिशत हो गया, जो वित्त वर्ष 2019-20 में 32.5 प्रतिशत था। वित्त वर्ष 2020-21 के लिए पेश किए गए बजट के अनुसार देश की जीडीपी 194.81 लाख करोड़ रुपये की थी, जिसमें घरेलू कर्ज का हिस्सा लगभग 72.66 लाख करोड़ रुपये था। भारत की अनुमानित जनसंख्या लगभग 139 करोड़ है। अगर कुल आबादी से कुल घरेलू कर्ज को भाग दें, तो प्रति व्यक्ति कर्ज औसतन 52.12 हजार रुपये होगा। यानि विगत चार वर्षों में प्रति व्यक्ति कर्ज में 78 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
चार साल पूर्व एक जुलाई 2017 को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किया गया था। जीएसटी लागू करते समय बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत और खुदरा महंगाई दर 2.41 प्रतिशत थी। बेरोजगारी दर मार्च 2020 में बढ़कर 8.8 प्रतिशत और जून 2021 में 9.17 प्रतिशत हो गई। जबकि खुदरा महंगाई दर जून 2021 में बढ़कर 5.52 प्रतिशत हो गई। थोक महंगाई दर मार्च, 2020 में एक प्रतिशत थी जो मुख्य रूप से कोरोना की वजह से और और कुछ अन्य कारणों से जून 2021 में बढ़कर 7.39 प्रतिशत हो गई। इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि विगत चार वर्षों में बेरोजगारी और महंगाई दर, दोनों में इजाफा हुआ है।
पिछले एक साल के अधिक समय से कई देश करोना के कहर से जूझ रहे हैं। भारत में भी इसका व्यापक असर हुआ। कोरोना काल में जो मौते हुई उसमें भारत का अधिकारिक आंकड़ा
3 लाख 70 हजार के करीब है, लेकिन इस आंकड़े पर किसी को भी विश्वास नहीं है। हमेशा यह दावा किया जाता रहा है कि सरकार ने सही आंकड़ा नहीं दिया है। अमेरिका की वर्जिनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर लेफलर के रिसर्च के आधार पर दावा किया गया कि भारत में कोरोना से 20 लाख से ज़्यादा मौतें हुई हैं। अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी अनुमान लगाकर दावा किया था कि भारत में कोरोना से मौतों को अगर बहुत कम भी मानें तो कम से कम 6 लाख मौतें हुई हैं। जबकि भारत में कोरोना की भयावह स्थिति को देखते हुये यह दावा भी कम ही है।
यहीं नहीं कोरोना से जितनी मौत हुई या हो रही हैं उससे कम मौतें भूख और बेरोज़गारी से होना शुरू हो गई हैं। सरकार की गलत नितियों के कारण देश में साठ फीसदी उद्योग औऱ काम-धंधे बंद हैं, ऐसे हालात में बेरोज़गारी की बढ़ती दर का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। एक खबर के अनुसार करीब पांच करोड़ लोगों की नौकरी खत्म हो गई है और 1.7 करोड़ उद्योग-धंधे प्रभावित हुए हैं। आने वाले दिनों में और भी कई काम-धंधे छोटे होंगे और छंटनियां जारी रहेंगी। इसमें मध्यम वर्ग से लेकर निम्न वर्ग, शहरी मजदूर तक शामिल हैं।
गंभीर बात यह है कि रोजगार के लिए आजादी के बाद से शहरों में आ रहे मजदूर पहले नोटबंदी और अब कोरोनाबंदी के डर से गांव लौट रहे हैं। ऐसे में क्या ग्रामीण अर्थव्यवस्था इनका बोझ उठाने की हालत में है। क्या बाढ़ और सूखे से जूझ रहे गांव इतने मजदूरों को रोजगार दे पाएंगे। इस विषम परिस्थिति के बारे में विचार करने के बजाय हर रोज़ सुबह बड़े मीडिया हाउसेज़ के साथ दिन भर की चकल्लस का एजेंडा तय कर दिय़ा जाता है। हिन्दू—मुस्लिम विवाद फिर मोदी विजेता, अमेरिका पर भारत की धौंस, किमजोंग-उन की हिटलरशाही या फिर चीन की चालबाज़ी, अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक, कभी पालघर तो अब नरेन्द्र गिरी महराज, तबलीगी जमात, लव जेहाद, धर्म परिवर्तन, मंदिर मस्जिद, मोदी—योगी के गुणगान आदि एजेंडे ही चैनलों पर बहस के मुद्दे बने हैं। प्रिंट मीडिया भी इनसे अछूता नहीं है। सच तो यह है कि सरकार की खैरात पर पल रहे मीडिया को अब अपनी साख की कतई चिंता नहीं रही।
आने वाले दिनों में बेरोजगारी कोरोना की बीमारी से अधिक भयावह रूप लेने वाली है। कोरोना से ज्यादा खतरनाक भूख साबित होगी। देश की जनता को अभी बहुत कुछ भुगतना बाकी है। जनता को सदमा दे कर फैसला थोप देना छप्पन इंच की निशानी नहीं होती। उसके दुख दर्द और घावों को भर कर ही जननायक बना जा सकता है। लेकिन सरकार को इस बात की चिंता ही कहां है। उसे तो अभी उत्तरप्रदेश में अपनी सरकार दोबारा बनानी है। इसलिये प्रत्येक जिलों में बैठकों का दौर जारी है। सरकार के गुणगान किये जा रहे हैं। अपने रिपोर्ट कार्ड में सरकार खुद को पूरे नंबरों से पास करके बैठी है। विपक्ष भी इस दांव पेंच में फंसा दिखायी दे रहा है। भूख, बेरोजगारी, मंहगाई और मौत का रिपोर्ट कार्ड सरकार दे नहीं सकती और विपक्ष अपनी साख बचाने में इस कदर परेशान है कि उसे इस रिपोर्ट कार्ड को मजबूती से मांग भी नहीं सकता।