स्त्री सम्पूर्ण सृस्टि की निर्माणकर्ता है। एक स्त्री के बिना पुरुष कभी पूरा नही हो सकता। आदिकाल से लेकर अनन्त काल तक हर स्त्री, पुरुष का आधार स्तम्भ हैं। स्वयं वही स्त्री अपने आप से सवाल करती है। कि मेरा आधार क्या है? मेरा अस्तित्व क्या है? मेरा घर कहा है? क्या मैं जीवन मे कभी अपने अस्मिता, इच्छा से फैसला ले सकती हूँ? हम जब किसी स्त्री के बारे में सोचते है तो तमाम उलझने दिखाई पड़ती है। स्त्री का जीवन पिता के घर से लेकर अपने ससुराल तक आज्ञापूर्ण कन्ट्रोल में रहता है। पहले पिता का कंट्रोल, और भाई की नजरबंद तले रहती है, फिर भी अपनी खुशी से जीवन जीने का,अपने हिसाब से काम करने का अधिकार मिल जाता है। जीवन के सभी मोड पर अपने पिता की आज्ञा जरूरी होती है। पढ़ाई से लेकर जीवन की रुचि का कोई भी कार्य हो।
जबकि आगे की स्थिति और भी कठिन होती है। शादी के बाद सभी कार्य नाप-तोलकर, और सब की खुशियों को ध्यान में रख कर करना पड़ता है। पति और परिवार के सभी सदस्यों की खुशियों में अपनी खुश ढूंढनी पड़ती है। बिना ससुराल के इच्छा अनुसार अपने मन से कोई कार्य नहीं कर सकती हैं। पिता के घर अपने खुशी के लिए निर्णय लेने की छूट भी मिल जाती थी। किन्तु ससुराल में वह भी खत्म हो जाती है।
स्त्री जब जिन्दगी की दूसरे पायदान पर पहुँचती है तो शारीरिक रूप से कमजोर होने लगती है। फिर वहाँ उनको अपने बेटे और बहू पर जीवन आश्रित करना पड़ता हैं। दूसरे दौर में अपनी इच्छाओं को मार कर अपने बेटे और बहू की खुशियों का ख्याल रखना पड़ता है। परिवार में एक औरत को ही अपनी इच्छाओं की कुर्बानी क्यो देनी पड़ती है? कहने के लिए हम 21 वी सदी में जी रहे हैं। क्या औरत का पूरा बराबर का सम्मान अधिकार एक नाम मात्र है? 21 वी सदी में क्या आज भी स्त्रियाँ पुरुषों के अधीनस्थ देख-रेख, अनुसासन में अपना जीवन व्यापन करेंगी ? चाहे वे पिता के साथ रहे या पति और बेटे के साथ हमेशा आजीवन दूसरे पर जीवन निर्भर रहेगी? 21 वी सदी बराबरी का अधिकार सब दिखावा है। हमारे खाने के दांत कुछ और दिखने के दाँत कुछ और हैं!!