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आज का गाँव परदेशी की नजर से

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मैं और मेरा गाँव अतीत के आईने से

गाँव की गलियों और बगीचों में
खेत में, खलिहानों में खाली पड़े मैदानों में ,
खेलते कूदते अटखेलियां करते करते,
एक लड़का न जाने कब बड़ा हो गया ।

दादी से दादा से , पड़ोस के बाबा से
टोले के चाचा से मुहल्ले की मावा से
बड़ो का आदर और बुजुर्गों का सम्मान सीखा
जीवन जीने का सलीका और ब्यवहार सीखा ।
न जाने कब बचपन से किशोर हो गया
एक लड़का न जाने कब बड़ा हो गया ।।

गाँव की पाठशाला और मिडिल स्कूल में
कस्बे के इंटर कॉलेज और डिग्री कॉलेज मैं
लेकर तालीम अपने पैरों पर खड़ा हो गया
एक लड़का न जाने कब बड़ा हो गया ।।

और फिर एक दिन

अपनों की सीख और सपनों की गठरी लिए
बेहतरी की चाह और अनंत हशरतें लिए ,
निकल पड़ा अपनों और अपने गाँव को छोड़कर
एक अनजाने सफर पर और अजनबी शहर में ।
खुद को स्थापित करने की जिद में
दिन रात जद्दोजहद करते करते
न जाने कब युवा से अधेड़ हो गया
एक लड़का न जाने कब बड़ा हो गया ।।

दिन महीने साल बीतता रहा
सपनो की दुनिया और हकीकत से जूझता रहा
संघर्षों के भंवरजाल में गिरता रहा और सम्हलता रहा
आखिरकार सीख ही ली जीने की कला
और हौशला बुलंद हो गया ।
एक लड़का न जाने कब बड़ा हो गया ।।

मैं और मेरा आज का गाँव

दशकों बाद आज लौटा है शहर से अपने गाँव मे
गाँव की बदली सूरत और सीरत देखकर
हैरान है , परेशान है
अन्तर्मन में बार बार उठ रहा सवाल
क्या यह वही मेरे बचपन का गाँव है ?
या फिर चौराहे से गाँव के अंदर जाती सड़क पर
फकत मेरे गाँव का नाम लिखा है ?

गाँव की आबोहवा बदली बदली सी लग रही है उसे ,
आपसी रिश्ते मुरझाए से लग रहे हैं उसे ।
परदेशियों के आने की खुशी अब चेहरों से नदारद है
गाँव की बदलती तश्वीर देखकर मन बोझिल है
ठगा ठगा सा मन सोच रहा मेरे गाँव को यह क्या हो गया
मेरे गाँव मे ही बचपन वाला मेरा गाँव खो गया । मेरा गाँव खो गया …

रवीश पाण्डेय

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