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कल आज और कल: कल्याण लोकसभा में हिन्दीभाषी क्यों बने हंसी के पात्र

हमार पूर्वांचल
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देवेन्द्र सिंह की सियासी चाल में उलझ जायेगा उत्तरभारतीय समाज

कहते हैं राजनीति एक वैश्या की तरह होती है, जिस पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता है। राजनीति करने वाले कब कौन सी राह पकड़ लें कहा नहीं जा सकता है। वैसे तो चुनाव को लेकर हर जगह माहौल गर्म है और लोग सियासी पासे फेंकने में मस्त हैं, लेकिन हम बात करते हैं कल्याण लोकसभा क्षेत्र की जहां पर हिन्दीभाषियों ने एकजुट होने की नाकाम कोशिस की किन्तु उदे्श्य साफ न होने के कारण आज हंसी के पात्र बन गये हैं।

गुरूवार की दोपहर आरटीआई कार्यकर्ता विनोद तिवारी सोशल मीडिया पर लाइव आकर अपनी व्यथा को व्यक्त किया। उन्होंने साफ तौर पर स्पष्ट कर दिया कि देवेन्द्र सिंह को खड़ा करने में उनका हाथ था किन्तु समय के साथ देवेन्द्र सिंह बदल गये और जो कमान विनोद तिवारी संभालने की योजना पर काम कर रहे थे उसपर पानी फेर दिया। श्री तिवारी ने यह भी कहा कि उन्होंने समाज के कुछ संभ्रान्त लोगों से बात किया था जो प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से साथ देने को तैयार थे, लेकिन हमार पूर्वांचल ने जब समाज के कुछ वरिष्ठ लोगों की राय जाननी चाही थी तब 90 प्रतिशत लोगों ने चुनाव लड़ने के फैसले को गलत बताया था और कहा था कि उनसे कोई राय नहीं ली गयी थी।

शायद यहीं संशय देवेन्द्र सिंह के मन में भी घर कर गया था। देवेन्द्र सिंह के करीबियों का कहना है कि जो लोग उनका साथ देने का वादा कर रहे थे उनमें कुछ लोगों का व्यवहार समाज के प्रति सही नहीं था। कहा चुनाव लोगों को समझा बुझाकर विश्वास में लेकर लड़ा जाता था। यदि कोई विरोध भी करता है तो उसे अपने पक्ष में लेने के लिये प्रयास किया जाता है न कि उसके साथ अपशब्दों का प्रयोग करके और भी दूर ​कर दिया जाय। जिस समाज को जोड़ने की बात की जाय यदि उसी समाज के लोगों का अपमान किया जाय, उनके साथ अपशब्दों का प्रयोग किया जाय तो लोग साथ कैसे देंगे। यहीं परिस्थितियां देवेन्द्र सिंह के सामने आ गयी थी जिसके कारण वे अनिर्णय की स्थिति में थे। यहीं वजह है कि उन्होंने नामांकन के जूलूस की तैयारी का जिम्मा दूसरे को दे दिया।

हालांकि हालात को देखते हुये देवेन्द्र सिंह ने जो कदम उठाया उसे गलत भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नाम वापस लेने के बाद जो लोग उत्तरभारतीयों का अपमान बता रहे हैं वहीं लोग अभी तक खुलकर बोलने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। जो समाज पर्दे के पीछे खड़ा था और खुलकर देवेन्द्र सिंह के पक्ष में बोल भी नहीं पा रहा था भला उस समाज पर वे भरोसा कैसे करते। हांलाकि देवेन्द्र सिंह के सामने खुद को उत्तरभारतीयों का नेता बनने का अच्छा मौका था। लोगों का विचार है कि नाम वापस लेने से पहले वे एकनाथ शिंदे से कुछ दिन की मोहलत लेते और कल्याण लोकसभा के सम्मानित लोगों को आमंत्रित करते और उनकी राय पर ही श्रीकांत शिंदे को समर्थन करते तो सबका अहं ठंडा पड़ जाता। क्योंकि ऐसे ही सम्मान की अभिलाषा सभी पाले हुये थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और देवेन्द्र सिंह का एकतरफा फैसला सभी के अहं को चोट पहुंचा गया। यहीं वजह है कि लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं।

अब हिन्दीभाषियों के नाम पर फुलाया जा रहा गुब्बारा फूट चुका है। देवेन्द्र सिंह को समझाने वाले लोगों के मन में अगला विधायक बनने का सपना हिलोरे ले रहा है। कुछ लोग नगरसेवक बनने के ख्वाब भी संजोने लगे हैं। यह महात्वाकांक्षा किसी एक की नहीं बल्कि खुद देवेन्द्र सिंह के साथ कई लोगों के मन में हैं, लेकिन चुनाव के समय बाजी अपने हाथ में लेने के बाद सामने वाला क्या गुल खिलायेगा, यह वक्त बतायेगा।

सूत्रों की मानें तो अब मामले को संभालने में देवेन्द्र सिंह की टीम लगी हुई है। मंथनों का दौर जारी है। रणनीति बनायी जा रही है कि ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाये, क्योंकि देवेन्द्र सिंह अभी तक मासूम ही बने हुये हैं। लोगों को भी लगता है कि किसी के बहकावे में आकर ही उन्होंने यह कदम बिना समाज के लोगों से राय लिये उठाया है। तलाश हो रही है कि देवेन्द्र सिंह की आवाज बनकर कौन मीडिया के सामने आये और कबूल करे कि उनके समझाने पर यह हुआ है, लेकिन खतरा इस बात का है कि जो भी देवेन्द्र सिंह और हिन्दीभाषी समाज के बीच पुल बनकर आयेगा, वहीं समाज के कोपभाजन का शिकार बनेगा और आने वाले समय में यदि वह चुनाव लड़ता है तो इस पनपे गुस्से का निशाना बन जायेगा। अब देखना यह है कि देवेन्द्र सिंह बलि का बकरा बनने से तो बच गये, लेकिन अपना पक्ष मजबूत रखने के लिये किसे बलि का बकरा बनाते हैं।

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