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ज्वलंत मुद्दा: नारी कोई देह नहीं, यदि कपड़े छोटे हैं तो सोच छोटी है!

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hamara purvanchal
Rupam Mishra

आज टीवी पर एक विज्ञापन देखा कि कपड़े छोटे नहीं होते सोच छोटी होती है, मैं भी कहती हूँ कि कपड़ें मत बदलो, समाज ही बदलो, वो तो होने से रहा। अब समझना होगा इस बात को, कि आज के संदर्भ में नारी को किस तरह से विस्थापित किया जा रहा है। मैं कहती हूं क्यों छोटे होंगे कपड़े, क्यों स्त्री को छोटे कपड़े पहनने की जरूरत पड़ रही है? मैं भी पहले यही सोचती कि जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी कुछ नहीं बदलेगा, चलो यह भी सही है, मान लेते हैं कि मानसिकता बदलनी चाहिए, लेकिन यह विचार लेकर, यह सोच लेकर, किस समाज में जाओगे। इस तरह के कपड़े पहन कर, इस तरह की सोच के लिए तो पहले आपको इस तरह का समाज बनाना पड़ेगा, जो कि अब असंभव है क्योंकि जो कुछ बुराई समाज के लिए अज्ञेय थी उसे इंटरनेट आराम से और सस्ते में परोस रहा है।

मानसिकता बदलने पर मैंने भी एक बार BBC लाइव में कमेंट किया था, कि सोच बदलनी चाहिए, खूब वाह वाह हुई मैं भी खुश हुई। अरे वाह मेरे विचार आधुनिक है लेकिन जब इस करंट अफेयर्स इंडिया को ध्यान से देखती हूं। तब समझ में आता है कि यहाँ तो हर शाख पर उल्लू बैठ हैं, अंजाम गुलिस्तां क्या होगा। अब पहले आधुनिक सोच पर ही बात कर लेते हैं। आधुनिक सोच का यह कतई अर्थ नहीं होगा कि सामाजिक दशा जो है हमारे परिवेश की, उसे न देखना, उसे न देखकर अमेरिका और इंग्लैंड को देखिए। अरे मैं कहती हूं जिस कल्चर को फिल्म और टेलीविजन या और कहीं दिखाया जा रहा है मनोरंजन के नाम पर, हमारे देश की कितनी आबादी प्रतिनिधित्व करती है ऐसे परवेश की। वह सब सपने बेचे जा रहे हैं और कुछ तथाकथित स्त्री वर्ग उसी सपने को सत्य मानकर उसी को अपनी सोच बना लिए हैं मैं कहती हूं हॉट और सेक्सी ऐसे शब्दों का पर्याय हम स्त्रियां ही क्यों बने।

हमारे स्त्रियोचित मौलिक गुण हैं जो हमें महान बनाने के लिए पर्याप्त है हम अपना अस्तित्व क्यों खोए इस में दिक्कत क्या है। इंदिरा गांधी सुषमा स्वराज कल्पना चावला या बहुत सी स्त्रियां जो आज उच्च पद पद पर हैं क्या उनके लिए अनिवार्य था कि छोटे कपड़े पहन कर ही सशक्त बन सकती हैं। कुछ तथकथित आधुनिक और शशक्त और सच कहा जाए तो मुर्ख स्त्री वर्गों को यह पता ही नहीं है कि यह स्वतंत्रता नहीं है हमारी यही हमारी परतंत्रता है कि हमें अब भी देह की दृष्टि से देखा जा रहा है। हम वस्तुसूचक संज्ञा का पर्याय क्यों बनी हुईं हैं। जो लोग तालियां बजाते हैं अश्लीलता पर वाह वाह करते हैं, अब उनकी बात करते हैं हम, अरे कुछ लंपट पुरुष सोच तो चाहता ही है कि स्त्रियों को इसी रूप में देखें अब आदर्श पुरुष समाज इसे दिल पर ना लें मैं सब की बात नहीं कर रही हूं।

हम आखिर कब समझेगें कि बोल्ड दिखने या दिखाने के नाम पर हमें छला जा रहा है। क्यों हमारे अस्तित्व को कपड़ों से आंका जा रहा है, मैं कहती हूँ, अगर कुछ भी उपयोगिता होती कम कपड़ें पहनने की तो आज रखी सावंत देश की प्रधानमंत्री औऱ मल्लिका शेरावत राष्ट्रपति होती और ये तथाकथित उद्धारक पुरुष समाज ये , ये तो अपने को जन्मजात परिपक्व बौद्धिक समझते हैं और हमें जन्मजात अपरिपक्व औऱ मूर्ख समझतें हैं। वो तो तुमको वैसे भी सिर्फ़ देह समझते हैं पर तुम तो खुद को मात्र देह देह समझना छोड़ दो, आखिर हम अपनी संस्कृति को क्या दे रहें हैं एक नंगा परिवेश।

अब हमें ये देखना है कि कि हमें क्यों सदियों से इसी तरह छला जा रहा है, ये पुरुष समाज खुद क्यो नहीं अश्लील मनोरंजन का पर्याय बन जाता है क्यों हम ही इनके मनोरंजन का सामान बनें, हमीं क्यों हॉट सेक्सी या मस्त चीज़ जैसे घटिया शब्दों का पर्याय बने। हम भी इंसान हैं हमारे अपने निजी विचार हैं हम क्यों पुरुषों को आकर्षित करने का सामान बने , हमें नंगेपन की इस झूठी और घृणित आजादी से छुटकारा चाहिए, आखिर कब तक हम इस दैहिक परिधि से बंधे रहेगें। आखिर नंगापन कब से सशक्तिकरण का पर्याय बन गया ?

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