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मैं कहां तुम पर कविता लिख सकती हूँ,

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मैं कहां तुम पर कविता लिख सकती हूँ,
कोइ कविता कहाँ समा पायेगी तुम्हारे निष्छल सौंदर्य में,
मैं तो कविता लिखती हूँ, दूर गगन में बैठे उस नीलवर्णी यायावर पर,
जिसकी तिलस्मी छाया मुझ पर पड़ी,

Rupam Mishra

तुम सरल हो ,शान्त हो,शीतल छाँह हो,
वह अबाध है ,अज्ञेय और कठोर है
तुम उबार लेते हो मुझे अवसाद के पीड़ादायी पलों से ,
मैं हतप्रभ हो जाती हूं तुम्हारे व्यक्तित्व की संपूर्णता देखकर,

तुम सहज हो सत्य हो,सौम्य हो,
वो,अबाध, है जड़ है और मेरा भ्रम भी है
तुम निठुर जीवन यात्रा के, सखा, मीत, सहयात्री हो
वह निराधार ,भ्रमित करता हुआ ,पथ है,

तुम सहेजते हो मुझे मणि की तरह,
वह छोड़ देता है मुझे धूप में मछली की तरह,
तुम देखते हो मुझे अगाध स्नेह से,
वह देखता है मुझे शून्य ,उदासीन ,

तुम गौरवर्ण ,सुंदर सलोने,पारस हो,
वो काला बांसुरी वाला ,रंग की तरह मन भी काला
तुम कराह उठते हो मेरी तकलीफ पर,
वह मुस्कुराता है मेरे आंसुओं पर

तुम सम्पूर्ण हो, कहाँ समा पायेगी कोई कविता तुम्हारे व्यक्तित्व में
पूर्णता पर, कहाँ कविता लिखी जाती है
कविता तो लिखी जाती है ,किसी अपूर्ण पर,
तुम प्रकृति की ,सजल सौंदर्य कल्पना हो

तुम्हारा प्रदीप्त तेज , अँधेरे में भी देख लेती हूँ
वो, तो कभी भी दिखाई ही नहीं देता, ढूंढ ढूंढ कर थक जाती हूँ
तुम धुंध से निकालकर, क्षितिज तक ले आते हो मुझे
वो, उलझनों के भँवर में ,छोड़ देता है मुझे,

वह याद आता है मुझे अंजाने में लगी चोट की तरह ,
जिसके छाले भी उसी की तरह नीलवर्णी हो गये हैं।

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