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लोकतंत्र की हत्या का गुनहगार कौन?

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लोकतंत्र! यह वह पवित्र नाम है जिसे सुनने के बाद आत्मा एक बार तृप्ति का अनुभव करती है। किन्तु चुनाव दर चुनाव लोकतंत्र की हत्या होती जा रही है।

लोकतंत्र को सामान्य शब्दों में बताया गया था कि “जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए” किन्तु जब लोकतंत्र का मेला हर पाँचवे वर्ष लगता है तब इसमें सम्प्रदाय, जाति, धर्म, क्षेत्र, पैसा, ऊंच-नीच नामक जहर धीरे-धीरे इसमें घुलता है, और अन्ततः लोकतंत्र “शहीद” हो जाता है।

जैसे ही मेले की शुरुआत होती है, लोकतंत्र खुद को ठगा हुवा महसूस करता है। कोई उसे सम्प्रदाय के नाम पर बाटने की कोशिश करता है तो कोई उसे पैसे से खरीदने की। कोई उसे क्षेत्र के नाम पर बाट देता है तो कोई ऊंच-नीच की रेखा खिंचने की कोशिश करता है। कोई जाति का ठेकेदार बन जाता है तो कोई धर्म की गुहार लगाता है।

इन सभी के बीच वह कर्ता मालूम नहीं कहाँ खो जाता है जिस के लिए लोकतंत्र की रचना हूई है। कहीं कोने में सिसकता पड़ा रोता रहता है क्योंकि उसकी जगह तो तमाम ठेकेदारों ने लिया है, जो उसे अपने सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र, पैसा या ऊंच-नीच के ओट में गिरफ्तार कर लिया है।लोकतंत्र की हत्या तो वास्तव में “हम” स्वयं करते हैं। कारण केवल और केवल निजिहित, स्वार्थ।

लोकतंत्र में जनता खुद की सरकार चुनती है ताकि क्षेत्र का विकास हो किन्तु अब स्वार्थ तंत्र हो चुके इस लोक तंत्र में लोग उस व्यक्ति को चुनते हैं जो उसका विकास करे। पुनः लोकतंत्र स्थापित करने के लिए हमारे अंतरात्मा को झकझोर के जगाना होगा, जो स्वार्थ के बोझ के नीचे दब चुकी है। जो किसी भी रूप में हो सकता है।

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