उस पहले उपराष्ट्रपति को, जो आजाद भारत के प्रथम भारतीय शिक्षा आयोग (१९४८) का सर्वप्रथम अध्यक्ष था. जिसकी अध्यक्षता में भारत की शिक्षा व्यवस्था ने अपनी नयी नीतियों का ढांचा निर्मित किया.. वह ढांचा कितना भारतीय था, कितना अभारतीय था? यह विवेचना का विषय हो सकता है किंतु यह बड़े विडंबना की बात है कि जो भारत प्रतिवर्ष 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाता है, उसी भारत ने कभी अपने प्रथम उपराष्ट्रपति को, इस देश को शिक्षा नीति देने वाले दूसरे राष्ट्रपति को, अपनी चर्चा का केंद्र नहीं बनाया. उन पर कभी व्यापक आलोचनात्मक विवेचन नहीं किया. यह करना बहुत आवश्यक था लेकिन नहीं किया गया.
सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि वह एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे. हर महान व्यक्ति अपने बचपन में गरीब होता है संघर्ष करके उन्नत होता है अतः कहा जाता है कि वह भी बेहद सामान्य परिवार से थे, यह बात अलग है कि उनके पिताजी लुटेरी कंपनी और ब्रिटिश गवर्नमेंट को कर देने वाले मजबूर स्थानीय जमीदार के यहाँ राजस्व विभाग में काम करनेवाले अधिकारी थे।यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा। स्कूल की यह व्यवस्था ही, उनके चारित्रिक विकास का आधार हुआ. यद्यपि कहा जाता है कि उनकी रूचि भारतीय दर्शनशास्त्र और संस्कृति में बहुत गहरी थी साथ ही साथ उन्हें बाइबल के कई अध्याय कंठस्थ थे. और वे दर्शन निकाय के बेहद प्रभावशाली शिक्षक रहे.
5 अक्टूबर को सारी दुनिया विश्व शिक्षक दिवस के रूप में मनाता ही है. किन्तु जब श्री सर्वपल्ली राधाकृष्ण जी स्वतंत्र भारत के द्वितीय राष्ट्रपति हुए तब उनके इष्ट मित्रों ने उनका जन्मदिन 5 सितम्बर को उत्सव मनाने का प्रस्ताव रखा किंतु वे व्यक्तिगत जन्मदिन मनाने के बदले उस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने के पक्ष में थे।
वैसे तो आषाढ़ महिने की पूर्णिमा का दिन ‘गुरुपूर्णिमा’ के रुप मे मनाया जाता है, वेदों को सरलता से समझने के लिए जिन महर्षि वेदव्यास श्री कृष्ण द्वैपायन ने महाभारत, गीता और पुराणों की रचना करके भारतीय सांस्कृतिक चेतना का उत्थान किया… उनकी पूजा होती है, उन्हें सादर याद किया जाता है, किंतु हमारे भारतीय दर्शनशास्त्रवेत्ता श्रीमान सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को क्या अपनी संस्कृति का यह बोध नहीं था, कि हमारी राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा के दिन शिक्षक दिवस ही तो मनाता है। पर शायद यह प्रथा सेक्युलर राष्ट्र के विधायक दृष्टि में एक सांप्रदायिक किरकिरी की तरह है। इसलिए भी 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना आवश्यक था । ऐसे में व्यक्तिगत जन्मदिन को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का औचित्य कितना है? क्यों है? क्या यह गवेषणा का विषय नहीं होना चाहिए?
हमारे देश में एक और राजनीतिक धड़ा है, दल है, एक क्षुब्ध और विस्फोटक विचारधारा है, जो सर्वपल्ली राधाकृष्णन को भारत में शिक्षक के रूप में याद करने को अपना समर्थन नहीं देता उनका अपना पृथक मत है, उनके अनुसार यह गौरव ज्योतिबा फुले या सावित्रीबाई फुले को जाना चाहिए. यह प्रतिरोध ही केवल जातीय स्पर्धा का परिणाम है. तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था, ‘सा विद्याया विमुक्तये’ के मंत्र से पृथक केवल लुटेरे तंत्र का प्रशिक्षणालय था. भारतीय चेतना सदैव ज्ञान और मुक्ति की अनुगामिनी रही… यही इसके गौरव का सांस्कृतिक बीज मंत्र था । भारतीय समाज व्यवस्था में भ्रष्टाचार का इतना व्यापक स्वरूप आखिर विकसित कैसे हुआ? इस प्रश्न का उत्तरदाई कौन है? क्या इस बात पर कभी स्वतंत्र चिंतन किया गया?
किसी समाज को शिक्षा ही बनाता है और यदि वह चाहे तो उसे पूरा का पूरा नष्ट भ्रष्ट भी कर सकता है. यह कोई मेरी अपनी बात नहीं है, इस बात को भारतीय अर्थशास्त्री कौटिल्य चाणक्य ने कहा है, ” शिक्षक की गोद में सृजन और प्रलय की शक्तियां खेलती हैं। ”
हम भारतीय कब तक किसी जुगनू को भगवान भास्कर कह कर पूजने का मिथ्याऽचरण करेंगे… क्या अपने खोए हुए गौरव के बिंदु पर लौटने के प्रत्येक द्वार और प्रत्येक मार्ग बंद हो चुके हैं? हम निरुपाय हैं? और अब कुछ नहीं किया जा सकता?
योगेश सुदर्शन आर्यावर्ती