आज हमने फेसबुक पर खबर पढ़ी एक समाजसेवी कुछ भूले भटके लोगो को अपने समाज मे वापसी का डंका पिट रहे थे।(जो प्रमाणिक भी नहीं है की वो धर्म परिवर्तन कर चुके थे) अब सवाल तो यह है की आपने कभी यह सोचा की हमने क्या-क्या छोड़ा? स्वार्थ मे किस-किसका साथ छोड़ आऐ हम?और जिसे जोड़ने की आवश्यकता है उसे ही हम नजरअंदाज कर देते हैं। हमारे अपनो का यही कसूर होता हैं की वो हमारी सफलता को पचा नहीं पाते इसलिए हमारी उपयोगिता उन्हे महसूस नहीं होती। पर ये कत्तई नहीं की उनको हमारी आवश्यकता नहीं है। सच तो ये ही हैं की वो मजबूर तो हैं पर बोलने में असमर्थ हैं। इसलिए हम एक-दुसरे को समझ नहीं पाते। धर्मांतरण तो रोक लेंगे ऐसा दावा कर लेने वालो से एक ही सवाल है। क्या आप अपने समाज के लोगो का उतना ही खयाल रखते हो??? जितना फेसबुक पर या अखबार में समर्पित दिखते हो। इसका जवाब नहीं मे मिलेगा, हमनें अपनो के रहते एकांकी जीवन जीते लोगो को इसी नजर से देखा हैं।
इसी समाज में बिना फिस के स्कूली बच्चों का शिक्षा से वंचित रहना और दवाओं के बिना उपचार बंद होते देखने के बावजूद भी ऐसे लोगों की मदद में, समाज और समाजसेवी खामोश क्यो रहते ? इसकी वजह साफ है, इस कार्य मे आपको दस, बीस लोग ही जानेंगे पर यही काम आप आन कैमरा करोगे तो आपको बहुत लोग जानेंगे। अब धर्म परिवर्तन के कारण भी सुन लिजिए शायद आप सभी मेरे इस लेख को इतना तवज्जो ना दे ….फिर भी लिखना तो हैं, मै नहीं तो कोई और ही लिखेगा पर लिखेगा जरूर। जैसे किसी भूखे का मजहब उसकी भूख होती हैं। वैसे ही जो समय पर, काम आ जाऐ। वहीं धारणा हमारी और हमारे नवागतो पर पड़ती हैं। जो हमारे विचारों को बदलने पर मजबूर करती हैं। हम कभी भी धर्मांतरण के पक्षधर नहीं हैं। पर किस विषम परिस्थितियों मे लोग मजबूर होते हैं। अपनो से दूर होकर क्या खोया, क्या पाया का विश्लेषण करें तो पता चलता हैं। उनके इस कदम मे हमारी उदासीनता भी शामिल थी। जो काम हम रोक सकते थे उसमें हम असमर्थ कैसे हो गयें…… और हम घर वापसी में कौन सा सुनहरा ख्वाब दिखाते होंगे। इसके बाद भी हमने कभी यह क्यों नहीं सिखा की अब जो हमारे हैं, हमारे ही रहे कहते है की ईच्छा शक्ति अगर दृढ़ रहे तो सब कुछ संभव हैं।
इतिहास साक्षी हैं हमारे पूर्वजों ने घास की रोटी खाकर भी अपने स्वाभिमान को जीवित रखा, दीवारों मे चुने गये विरांगनाये सती हुयी। तमाम यातनाएं भी सही पर हम हमने धर्मांतरण को गले नहीं लगाया पर अब ऐसी क्या मजबूरी हैं जो हमसे दूर अपने ही जा रहे है कारण ढ़ूंढ़े तो पता चलेगा अपनो की अवहेलना ही, और हमारी सोच जो अगड़े और पिछड़े की हैं(जाँति-पाँति) से नहीं बल्कि सोसायटी से….जो हमारे तथाकथित समाजसेवीयो ने पैदा कर रखा हैं। कहने का तात्पर्य यह की हम अगर समाजसेवा ही करना चाहते है, तो क्या धर्म और संप्रदाय देख कर करे?? या आवश्यकता देखकर करें? हम जिस भी क्षेत्र की सेवा दे सकते हैं। वो जरूर करे लेकिन बिना भेदभाव के तो आपकी महानता हैं अन्यथा तो अंगुली कटाकर शहीदों मे नाम क्यू दर्ज करवा रहे है। आप समाज जोड़ नही तोड़ रहे हैं।
जय हिंद…..