Home मन की बात 14 सितंबर को हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं-चंद्रवीर बं.यादव

14 सितंबर को हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं-चंद्रवीर बं.यादव

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हिंदी माध्यम में पढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने का संकल्प हिंदी दिवस पर लें। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया, तभी से 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप मे मनाया जाता है। आज ही के दिन हिंदी को संघ की राजभाषा का स्थान मिला था, इसलिए यह गर्व का दिन है। आज के दिन इस पर्व को मनाकर हम संपूर्ण विश्व मे हिंदी के प्रति अपने आदर को दर्शाते है। इस दिन प्रदर्शनी, मेले, गोष्ठी, सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है। वास्तव में हिंदी को सभी भारतीय समझते हैं, बोलते हैं। हम सभी यह सहर्ष स्वीकार करते है कि हिंदी भाषा बोलने में, लिखने में सरल है।

वर्तमान परिदृश्य में हिंदी भाषा विश्व पटल पर भी आ गई है। अप्रवासी भारतीय फिजी, मॉरीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका आदि विभिन्न राष्ट्रों में बसे हुए है तो उसका श्रेय हिंदी को ही है। अतः हम सभी भारतवासियों का कर्तव्य है कि एक देश एक भाषा के महान सपने को साकार करने के लिए हिंदी के विकास में स्वयं यथासंभव योगदान दें। हिंदी की इतनी बड़ी ताकत है कि उसे बोलने वाले विश्व के लगभग 150 से भी अधिक देशो में है। संयुक्त राज्य अमेरिका के येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है। वहाँ आज भी तीस से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिंदी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। दूसरी ओर रुस में हिंदी पुस्तकों का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व के किसी भी भाषा का हुआ हो।

लेकिन सच यह है कि वर्तमान समय में हमारे यहाँ हिंदी दिवस जैसा दिन मात्र एक खानापूर्ति बन कर गया है। आज देश में हिंदी में कामकाज हो इसके लिए हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है। लेकिन फिर भी वह अपने ही देश में अपना अस्तित्व खो रही है। हर देश की राष्ट्र भाषा होती है। सारा सरकारी तथा अर्धसरकारी काम उसी भाषा में किया जाता है। वही शिक्षा का माध्यम भी होता है। कोई भी देश अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही विकास पथ पर अग्रसर होता है। संसार के सभी देशों ने अपने देश की भाषा के माध्यम से ही अनगिनत आविष्कार किए है, लेकिन हम है कि आजादी के इतने वर्षों के बावजूद हिंदी का सम्मानजनक स्थान नहीं स्थापित करवा सके। वह भी अपने ही देश की धरती पर।

वास्तव में विश्व में चीनी के बाद हिंदी सबसे विशाल जनसमूह की भाषा है, फिर भी हमारे देश में जब युवा पढ़ाई पूरी करके साक्षात्कार के लिए जाते हैं तो उनसे यह प्रश्न जरूर पूछा जाता है कि क्या आपको अंग्रेजी आती है? कोई यह नहीं पूछता है कि क्या आपने हिंदी माध्यम से शिक्षा ग्रहण की है? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि यह सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने तथा युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे। उन्होंने यह बात 60 के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी जो कि आज के संदर्भ मे भी एकदम सही है। उन्होंने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह अहिंदीभाषी लोग उसको लाना चाहें। यही वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार आज भी है तथा भविष्य में भी होना चाहिए। क्योंकि हिंदी हिंदुस्तान की धड़कन है।

अब एक बात साफ हो गई है कि आज भले ही हमारे मुल्क में हिंदी बोलने में एलीट क्लास हिचकता हो, लेकिन समन्दर पार विदेशी सरजमीं पर हिंदी रोजगार पाने का सबसे बड़ा जरिया बन रही है। एशिया हो या यूरोप, अफ्रीका हो या अमेरिका महाद्वीप। सभी जगह हिंदी का जलवा दिन प्रतिदिन प्रगति पथ पर है। फिर हम गर्व से हिंदी के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाने की ही नहीं सक्रियता में जुड़े रहने की प्रतिज्ञा में पिछे क्यों है? आज देश में जिस तरह से अंग्रेजी को हिंदी भाषा-भाषी अपनाने के चक्कर में पड़े हैं, उससे एक बात तो साफ हो गई है कि अंग्रेजी हिंदी की दुश्मन तो नहीं है। लेकिन हिंदी और अंग्रेजी में यही फर्क है कि हिंदी माँ है लेकिन अंग्रेजी आंटी है, अर्थात आंटी में फूफी, चाची, मामी और मौसी सभी को एक ही नाम दिया गया है। लेकिन हिंदी में ऐसी बात इसलिए नहीं है, क्योंकि हिंदी रिश्ते की कद्र करना सिखाती है वह मौसी, चाची, फूफी की कद्र करना सिखाती है। लेकिन हम है कि समझ ही नहीं पा रहे हैं। तो इस ना सामझी का नतीजा यह है कि गांव में सरकारी स्कूलों और मुंबई में मनपा के स्कूलों में मातृभाषा में पढ़े बच्चे सालाना बीस लाख तनख्वाह पा रहे हैं और शहर के कान्वेंट स्कूलों में पढ़ें बच्चें बीस लाख लोन लेकर उन्नीस साल की किश्त भर रहे हैं। फिर भी अंग्रेजी स्कूलों के प्रति लगाव बढ़ता ही जा रहा है ।

जबकि चाहिए यह कि महाराष्ट्र में मराठी माध्यम से हर कोई पढ़ाई करे, गुजरात में गुजराती, तमिलनाडु में तमिल, बंगाल में बंगाली, कर्नाटक में कन्नड, आंध्रप्रदेश में तेलगु और कोंकण में कोंकणी और किसी को अपने प्रदेश की भाषा में न पढ़ना हो तो उसे हिंदी में पढ़ने के लिए अवसर दिया जाना चाहिए। हाँ यदि अंग्रेजी भाषा के स्कूल में कोई पढ़ना चाहता है तो उसे यह समझाना होगा कि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है। हिंदी हमारी माँ है। मराठी हमारी मौसी है। रिश्तों में मौसी को माँ सी ही माना जाता है। विशेषतः हमें यह ध्यान रखना होगा कि आज ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता के पहले भी जिस प्रकार से देश ने स्वतंत्रता की लड़ाई हिंदी में ही लड़ी उससे सभी अवगत हैं। शायद हिंदी का ही प्रभाव है कि आज जिस प्रकार से महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे ही नहीं बल्कि कोंकण में हिंदी भाषा भाषी सम्मानित स्थान पर दिखाई दे रहे हैं। उससे एक बात साफ हो जाती है कि सभी को अपने प्रदेश की भाषा के साथ ही हिंदी पसंद है।

जैसे महाराष्ट्र में मराठी के बाद हिंदी सभी को प्रिय है। अंग्रेजी-अंग्रेजी की रट लगाने वाले लोगों से बार-बार एक सवाल पूछने का मन करता है भाई आप और आपके पूर्वज अपनी मातृभाषा में क्यों पढ़ें? दूसरी बात जो लोग हिंदी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगु, कन्नड़, बंगाली माध्यम के स्कूलों में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं वे मात्र एक अंग्रेजी विषय पढ़ाने में दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाते है। या यूं सीधे-सीधे कह लीजिए तमाम यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी से हिंदी में किसी विषय का हिंदी में अनुवाद करना होता है, तो कोई क्यों दिलचस्पी नहीं दिखाता है? कहने का मतलब है अंग्रेजी हमें आती ही नहीं और न ही उसे पढ़ कर किसी को कुछ बताना चाहते हैं। हां फिर भी हम अंग्रेजी के महत्तव को जिस प्रकार बढ़ाकर आगे जाना चाहते हैं। वह कहीं न कहीं हमारे स्वार्थ को दर्शाता है। लेकिन हिंदी हमारे दिल में है क्योंकि यदि वह हमारे दिल में न होती तो आज भारत ही नहीं विश्व में हम हिंदी फिल्मों को पसंद न करते और न ही कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन की हिंदी को सुनने के लिए बेचैन रहते। लेकिन पता नहीं क्यों यही बेचैनी हिंदी माध्यम में अपने बच्चों को पढ़ाने से हमें कोसों दूर क्यों ले जाती है? यह सचमुच में हमारी अंग्रेजी की ग़ुलाम होने की मानसिकता का परिचायक है।

यह हमारे परिवार और समाज के लोग समझ नहीं पा रहें हैं। अतः प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि सर्वप्रथम वह अपने राज्य की भाषा में अपने जिले के जिला परिषद और महानगरपालिका स्कूलों में अपने बच्चों का नाम लिखवाने की योजना बना कर आगे बढ़ने की कोशिश करें। विशेष कर संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध मुंबई महानगरपालिका के स्कूलों में मराठी और हिंदी माध्यम में जल्द से जल्द नाम लिखवाने की ओर आगे बढ़े। क्योंकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे प्रगति पथ पर आगे बढ़ रहे हैं। हां यदि बच्चे को राज्य की भाषा में उसे न पढ़ाना हो तो उसे हिंदी माध्यम के स्कूलों में दाखिला दिलवाएं। क्योंकि आज भी अधिकांश हिंदी और मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगु, कन्नड़ माध्यम के पढ़े बच्चे ही आगे जा रहे हैं। फिर अंग्रेजी भाषा में यदि बच्चे को पढ़ाना ही है तो उसे मनपा के इंटरनेशनल या एमपीएस स्कूलों में ही दाखिल करवाएं। इन स्कूलों में नि: शुल्क शिक्षा तो मिलती ही है, साथ ही कपड़ा, किताब, नोटबुक, भोजन सब कुछ मुफ्त है। यदि आपको मनपा स्कूलों में नहीं पढ़ाना हो तो कृपया अंग्रेजी स्वयं से बोलना शुरू करें घर, बाजार और रिश्तेदारों से अंग्रेजी में बात कीजिए। आप स्वयं अंग्रेजी बोल नहीं सकते हैं। तो फिर यह नासमझी वाला निर्णय क्यों? इसीलिए समझने की कोशिश कीजिए और हिंदी दिवस पर प्रण लीजिए हिंदी में सभी कार्य करने की। हिंदी में अपने बच्चों को पढ़ाने की।

चंद्रवीर बंशीधर यादव ( शिक्षाविद्), महाराष्ट्र। मोबाइल नंबर 9322122480

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