Home मन की बात प्रउत (प्रगतिशील उपयोग तत्त्व) दर्शन की आवश्यकता क्यों ?

प्रउत (प्रगतिशील उपयोग तत्त्व) दर्शन की आवश्यकता क्यों ?

हमार पूर्वांचल
कृपाशंकर पाण्डेय

सभी प्राणी एक कोशिकीय प्राण देह धारी अग्रसर चित्त से लेकर बोधि संपन्न मानव तक सभी सुख की तरफ चल रहे हैं। जब सुखानुकुल परिवेश मिलता है तब वे शांति की अवस्था में रहते हैं। शांति महसूस करते हैं। जिस क्षण सुख के अनुकूल ना होकर प्रतिकूल परिवेश के मध्य रहना पड़ता है उसी क्षण अशांत हो जाते हैं। जीवन दु:खमय हो जाता है। जीवन परेशानियों से भर जाता है। अस्तित्व पर खतरा दिखाई देता है। यही मनसतत्व सभी जीवो के साथ पाया जाता है। अतः सभी प्राणियों की जीवन यात्रा सुख को लक्ष्य करके है। इस अनुकूलता की तरफ चलने में ही उनका क्रमिक विकास होता चल रहा है।

मनुष्य के स्तर पर आते-आते परमात्मा ने मनुष्य को अनन्त क्षुधा दी है और उनकी पूर्ति के लिए दिया है विशेष संपत विचार शीलता, विवेक। मनुष्य विवेक का पथ अवलम्बन कर अपने परिवेश को अनुकूल बना कर जीवन को सुखमय बना सकता है। सबके लिए शांति का वातावरण बना कर आनंदित कर सकता है। आनन्द में प्रतिष्ठित होने हेतु ही मानव का अस्तित्व है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मनुष्य ने समाज बनाया। मिलजुल कर सभी काम करना प्रारंभ किया। मिलजुल कर दु:ख-सुख का भोग करना प्रारंभ किया। मनुष्य बैठा नहीं रहा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्यत्व की प्रतिष्ठा और सब की शांति और सुख के लिए राजनीति, अर्थनीति, समाज, संगीत, धर्म शास्त्र, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, संस्कृति, नृत्य, गीत, वाद्य वास्तु कला शैली, कला इत्यादि इत्यादि को समय-समय पर प्रतिपादित, विकसित करता रहा। उसने सर्वोच्च सत्ता भगवान की अवधारणा कर उनके लिए मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा इत्यादि बनाया। यह सब उसने अपने को सुखी बनाने, आनन्दित करने तथा शांति से रहने के लिए किया। मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरजा तीर्थ पूजा-अर्चना, ज्ञान -विज्ञान कला, भवन, साहित्य, धर्म शास्त्र, समाजशास्त्र, सरकार, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, संस्कृति, सब मनुष्य की सेवा के लिए हैं। मनुष्य को मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित करने के लिए हैं। मनुष्य को आमोद- प्रमोद की सुखद शांतिमय पथ से उसके लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए हैं। मनुष्य के मानसिक अस्तित्व की रक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नयन के लिए हैं। सहयोगिता, सद्भाव, शांति न्याय व शिक्षा के लिए हैं ।
एक सामान्य मनुष्य भी आज यह प्रश्न कर सकता है कि क्या यह प्राचीन काल से चली आ रही व्यवस्थाएं, धर्म, संप्रदाय, मजहब, रिलिजन , मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा, अर्थव्यवस्था, राजनीति, सामाजिक संहिताएँ, दर्शन, ज्ञान विज्ञान, मनुष्य को उसके आसन पर उन्नित करने में सक्षम हुए? उत्तर कोई सामान्य व्यक्ति भी दे सकता है, नहीं। यह सभी मिलकर भी मनुष्य की किसी प्रयोजनीयता की पूर्ति नहीं कर सके। इन सब ने मिलकर मनुष्य को टुकड़ों में बांटा और अशहिष्णुता, द्वेष, घृणा का विष बोकर हिंसा के पथ पर, अनैतिकता के पथ पर चलना सिखाया। मनुष्य को उसके लक्ष्य से दूर ले जाकर धर्महीन बना दिया। मनुष्य बेचारा काष्ठ, पत्थर के रूप में अथवा कीड़े-मकोड़ों की भांति नरक में जीवन बसर करने के लिए बाध्य हो गया है। इस पतन के पथ पर चलने के लिए जो सब पंडा, पुजारी, पादरी, राजनेता या अन्य समाज के तथाकथित सुविज्ञ जन सब के सब या तो स्वयं दिशाहीन हो कर उसी व्यवस्था की दुहाई देकर प्रेरित करते हैं या इस वर्तमान की प्रचलित व्यवस्थाओं के द्वारा पालित पोषित होने के कारण अपने शोषण को अव्याहत रखने के उद्देश्य से प्रेरित व प्रेषित करते हैं। मनुष्य के लिए व्यवस्थाएं हैं। मनुष्य व्यवस्थाओं के लिए नहीं है। जो सब व्यवस्था मनुष्य को त्राण नहीं दे सके, न्याय, शांति, सुख नहीं दे सके, नैतिकता और मानवबोध जागृत करने में नाकाम रहे, धर्म से दूर अंधविश्वास व कुसंस्कार का पथ दिखावे, दैहिक अस्तित्व रक्षा और मुक्त बौद्धिकता जागरण के लिए उचित व्यवस्था प्रदान नहीं कर सके उनकी क्या जरूरत है? उनका अंत होना समाज हित में मानवता के कल्याण में अत्यंत आवश्यक है। यही युग की, मानवता की पुकार है।

यह मंदिर, यह धर्म, यह पूजा या समाज किस लिए है (?)जहां मनुष्य अनादरीत है अवहेलीत व शोषित है। व्यवस्था के नाम पर यह वृद्ध, नारी, बालक अथवा किसी का अपमान भगवान का अपमान है, नारायण का अपमान है। जहां एक छोटे बालक को, बालिका को शिक्षा देने के बजाय संभ्रांत घरों में, होटलों, ढाबों में, बर्तन मांजने, खाना सर्व करने जैसा अमानवीय काम लिया जाता है वहां ईश्वर को प्रत्यक्ष रूप में अपमानित किया जाता है। यह मानवता का शोषण है। कौन जानता है बालकों के मध्य महामानव बनने का बीज छुपा है जो शोषण से कुंठित होता जा रहा है। यहां भी एक सामान्य व्यक्ति के मन में एक अति सामान्य प्रश्न उठ सकता है
आखिर व्यवस्थाओं में ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का अति सामान्य उत्तर है। इन व्यवस्थाओं को किसी विशेष समुदाय हेतु वह किसी विशेष समय में, खण्ड दृष्टि में रखकर प्रतिपादित किया गया है। इनमें अखंड का मनोभाव व सर्व जनहितार्थ की भावना का अभाव है। इसीलिए इनमें से किसी की आज प्रयोजनीयता नहीं है। इनकी जगह पर अखंड को दृष्टि एवं लक्ष्य में रखकर एक सर्वजनीन व्यवस्था का निर्माण अत्यावश्यक है जो वर्तमान की सभी समस्याओं का निदान दे सके। वही वांछित विकल्प ‘प्रउत दर्शन’ तथा उसकी दृढ़ भित्ति पर निर्मित सर्व कल्याणकारी शासन व्यवस्था है ।
एक आदमी की आशा, आकांक्षा तथा आवश्यकता सबकी आशा आकांक्षा व आवश्यकता है। इसी कारण विश्व के प्रत्येक व्यक्ति की आशा, आकांक्षा व आवश्यकता को देखकर, समझ कर, सबके मन में उठ रहे प्रत्येक स्पंदन को ह्रदयंगम कर प्रउत दर्शन को प्रतिपादित किया गया है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति तथा उन से निर्मित सभी मानव समुदायों का यह आंदोलन है। इसका परिक्षेत्र विश्व का सभी क्षेत्र, सभी मानवों से संबंधित, सभी के शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान का आंदोलन है, परंतु प्रथम स्तर पर यह समाजार्थिक आंदोलन है।मानव के इतिहास में इतना बड़ा व व्यापक क्षेत्र का आंदोलन दिखाई नहीं देता। इस आंदोलन के स्वरूप तथा परिक्षेत्र ही यह प्रमाणित करते हैं कि यह विप्लव स्वयं परम पुरुष द्वारा निर्मित है। करुणामूर्ति श्री श्री आनंदमूर्ति जी ने करुणा कर, ममता के वशीभूत होकर, मानवता के कल्याण के उद्देश्य से इस विराट विप्लव का निर्माण किया है। आएँ इस धरती पर इसे प्रतिष्ठित करने के महाव्रत में जुट जाएं।

कृपा शंकर पाण्डेय
शिक्षक एवं प्रउतवादी विचारक

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