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हाँ, तुम भी राम हो-हेमलता मिश्र “मानवी

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कौन कहता है कि तुम राम नहीं हो – –
क्या सिर्फ़ इसलिए कि नहीं गये हो वनवास
चौदह वर्ष के लिए, पिता की आज्ञा पर।
या तुममें राम सी तितिक्षा और साहस नहीं है
या राम सी शील और मर्यादा नहीं है।
जान लो भारती पुत्र, तुम राम हो।
हां तुम भी राम हो – – – –

कि—पिता का कर्ज माता का मर्ज
भाई की पढ़ाई बहन की विवाही
जीर्ण-शीर्ण घर की दुरुस्ती
रिश्तेदारों की सरपरस्ती
अभावों में पली जंजाल बनी गृहस्थी
के टूटे सपनों में बिखरी अपनी हस्ती
की तनी हुई धनुष प्रत्यंचा
लहुलुहान कांधे पर उठाए तुम—
राम से कहां कम हो।

तुम जो चने के चार दानों में – – –
अर्थ – – धर्म – – – काम—-मोक्ष खोज रहे हो
राई—-नोन——तेल—-लकड़ी के चार वेद
पराई नौकरी की व्यथा में पढ़ रहे हो
ईंट पत्थरों के जंगल में – – –
अस्तित्व की लड़ाई का अश्वमेध रच रहे हो।
बताओ तुम राम क्यों नहीं हो?

माना कि – – –
गुरु साहित्य में समाया नाम नहीं हो तुम
युग की उंगली पकड़ कर चलवाने वाले
युग पुरुष भी नहीं हो तुम।
लेकिन इन सब अर्ध-सत्यों के पार
एक पूर्ण सत्य जान लो कि—
भौतिक प्रलोभनों की धधकती महायज्ञाग्नि में अपनी दमित-शमित कामनाओं की समिधा
का हविष्य देकर
विश्वामित्री मन की साधना करते तुम – – –
निःसंदेह राम से कम नहीं हो
हां तुम राम हो – – राम हो

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