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आखिर क्या है विकल्प !

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हमार पूर्वांचल
भदोही न्यूज़

देश आगामी लोकसभा चुनावों से महज तीन महीने दूर है और देश में चोर-सिपाही के नारों के बीच एक सवाल बहुत शिद्दत से तैर रहा है कि केंद्रीय सत्ता पर आरूढ़ गठबंधन के उत्तर में विकल्प क्या है. एक और तमाम साधनों, कार्पोरेट के दम पर धमाकेदार विज्ञापनों के जरिये देश को आमूल-चूल बदलने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन है। दूसरी ओर अपनी-अपनी धुरी पर नाचता खंडित विपक्ष। विपक्ष के नेतृत्व को लेकर भी सवाल यही दोहराया जाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान के मुखिया प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी का विकल्प क्या और कौन हो सकता है। जहाँ तक कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी का प्रश्न है, भाजपा और उसके प्रचार तंत्र ने उन्हें मूर्ख शिरोमणि प्रमाणित करने में कोई कोताही नहीं बरती है. ‘पप्पू’ से शुरू यह खेल अब खुद भारतीय जनता पार्टी को मुश्किल में खड़ा कर रहा है।

भाजपा के अधिकांश नेता राहुल गाँधी को अगंभीर नेता (नॉट अ सीरियस पोलिटिशियन) बताते रहे और कालान्तर में यह अगंभीर नेता अब गंभीरता से सुना जाने लगा। इसी का परिणाम है कि गुजरात के विधानसभा चुनावों में भाजपा का मिशन150 ढेर हो गया और बमुश्किल भाजपा की सत्ता में वापसी हुई। इसके बाद हुए लोकसभा उपचुनावों में विपक्ष की बदली रणनीति ने भाजपा का विजय रथ रोका।

देखा जाये तो गोरखपुर और इलाहाबाद के लोकसभा उपचुनाव हारना भाजपा के लिये आत्म मंथन का विषय थे लेकिन जब सभी यह जानते हों कि गोरखपुर और इलाहाबाद में भाजपा को विपक्षी एकता से कहीं ज्यादा भाजपा की अपनी अंदरूनी राजनीति ने पटखनी दी। रही सही कसर कैराना के उपचुनाव ने पूरी कर दी। वस्तुत: यही वह विंदु था जहाँ भाजपा को चेतना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। परिणाम यह है कि आत्ममुग्धता में भाजपा ने मध्यप्रदेश, राजस्थान व अन्य जगहों पर हुए किसान आंदोलनों को विपक्ष प्रायोजित कहकर ख़ारिज करने का प्रयास किया। दिल्ली में जुटे किसानों से मिलने तक का समय न भाजपा नेतृत्व के पास था न सरकार के पास. जबकि राहुल इस मामले में आगे निकल गये। वे दिल्ली में प्रतीकात्मक ही सही लेकिन किसान के साथ खड़े नजर आय। नतीजा हाल ही में तीन हिन्दीभाषी राज्यों में नजर आया है। यह कहना अलग होगा कि कड़े मुकाबले में हार हुई है लकिन साथ ही साथ यह भी ध्रुव सत्य है कि जीत एक वोट, एक सीट से भी ज्यादा हो तो जीत ही कहलाती है।

अब प्रश्न फिर वही है कि विकल्प क्या है? संयुक्त विपक्ष का नेता कौन होगा? राहुल गाँधी? चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, लालू यादव के पुत्र अथवा नवीन पटनायक? शरद यादव या शरद पवार? यह प्रश्न और विकल्प की अनिश्चितता के बीच यह भी समझना जरुरी है कि भारतीय राजनीति में जब भी केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध विपक्ष एकजुट हुआ है तब चेहरे से ज्यादा सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य सबसे ऊपर रहा है। नेता का प्रश्न गौण रहा है। यही कारण है कि देश में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी के झंडे के तहत एकजुट हुए तमाम विपक्षी दलों ने भारतीय लोकदल के चुनाव चिह्न हलधर किसान पर चनाव लड़ा और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे।

भारतीय लोकदल की स्थापना 1974 में चौधरी चरणसिंह ने की थी। मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री भी बने, लेकिन 1980 में आपसी मतभेदों के कारण जनता पार्टी टूट गई और चौधरी चरण सिंह भी उससे अलग हो गए। उन्होंने जो पार्टी बनाई उसका नाम ‘लोकदल’ था और चुनाव निशान था ‘हल जोतता हुआ किसान’। लोकदल नाम की यह पार्टी 1987 में चौधरी चरण सिंह के देहांत तक ठीक से चलती रही। एक समय देवी लाल, नीतीश कुमार, बीजू पटनायक, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव भी इसी लोक दल के नेता होते थे. 1984 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी के सिर्फ दो सांसद थे तब लोकदल के चार सांसद होते थे. लेकिन चौधरी चरण सिंह के देहांत के बाद लोकदल पर कब्जे की लड़ाई छिड़ गई. कुछ दिनों तक हेमवती नंदन बहुगुणा इसके अध्यक्ष रहे। लेकिन बाद में यह लड़ाई चुनाव आयोग पहुंच गई. उस समय भी पार्टी पर दावा करने वालों में खुद चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह भी शामिल थे. लेकिन भारतीय चुनाव आयोग ने फैसला सुनाया कि अजीत सिंह बेटे होने के नाते चरण सिंह की संपत्ति के वारिस तो हो सकते हैं, मगर पार्टी की विरासत उन्हें नहीं मिल सकती है. तब अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोक दल नाम की अपनी अलग पार्टी बना ली जिसे वह अभी भी चला रहे हैं।

कांग्रेस भी टूटी जिसमे एक धड़े के नेता देवराज अर्स थे और दूसरी की अगुवा इंदिरा गाँधी थी. इसका नाम कांग्रेस आई था. 1980 में कांग्रेस की वापसी और 1984 में इंदिराजी की हत्या के बाद कांग्रेस की पुनर्वापसी का इतिहास सभी को मालूम है. प्रचंड बहुमत से जीती कांग्रेस बोफोर्स तोपों के सौदे के मुद्दे पर इतनी बदनाम हुई कि विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेता कांग्रेस से अलग हुए और जनता दल नाम से एक नया दल गठित हुआ जिसके बैनर तले तमाम विपक्षी नेता चुनाव लड़े. भाजपा अलग अपने बैनर पर लड़ी और जनतादल सरकार को बाहर से समर्थन दिया. तब भले विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स के कारण विपक्ष का प्रमुख चेहरा बनकर उभरे थे लेकिन राजीव गाँधी के समक्ष विकल्प का चेहरा उन्हें नहीं बनाया गया था. बाद में चंद्रशेखर के बंगले के सामने जेठमलानी के पिटने वी.पी.सिंह के प्रधानमंत्री चुने जाने,का इतिहास भी सभी जानते हैं।

मुख्य यह है कि तब भी विपक्ष ने अपना नेता चुनाव से पहले नहीं चुना था. मई 1991 में राजीव गाँधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर ने कांग्रेस को सत्ता में वापस स्थापित तो किया लेकिन तब पी. वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने. 1996 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष एक नहीं हुआ और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन शेष विपक्ष ने अटलबिहारी वाजपेयी को अपना नेता नहीं माना परिणामत: मात्र 13 दिनों में ही यह सरकार गिर गयी. कांग्रेस की वैसाखियों पर जनतादल की खिचड़ी सरकार 1 जून 1996 को एच. डी. देवेगौडा की अगुवाई में बनी. 11 अप्रैल 1997 के बाद इन्द्रजीत गुजराल ने कमान संभाली. इन दोनों ही नेताओं का नाम कभी भी भावी प्रधानमंत्री के तौर पर नही उछला था. बाद में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन के बैनरतले एकत्र हुए विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी के अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री चुने गये लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद।

2004 के लोकसभा चुनावों में वाजपेयी जैसे विराट व्यक्तित्व के सामने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात यूपीए जब चुनावी जंग में उतरा तब भी कोई चेहरा वाजपेयी के विकल्प के तौर पर पेश नहीं किया गया था. चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधान मंत्री बने और 2009 आते-आते लालकृष्ण आडवानी को उनके सामने विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर भाजपा नीत राजग चुनाव में उतरा पर सत्ता हासिल करने में विफल रहा।

अब प्रश्न यह है कि क्या राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी के सामने टिकेंगे?’ ऐसे ज़्यादातर सवाल भाजपा और उसके नेता प्रधानमंत्री मोदी की ‘अपराजेय छवि’ के बोझ से दबे नज़र आते हैं. वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने एक लेख में लिखा है कि ये सवाल स्वाधीनता-बाद की भारतीय राजनीति के संक्षिप्त इतिहास को भी नज़रंदाज करते हैं. विपक्ष ने कब एक ‘सर्वस्वीकार्य नेता’ की अगुवाई में लोकसभा चुनाव लड़ा? संसदीय चुनावों में जब कभी विपक्ष, ख़ासकर गैर-भाजपा अगुवाई वाले गठबंधन या मोर्चे को कामयाबी मिली, उसके नेता यानी भावी प्रधानमंत्री का चयन हमेशा चुनाव के बाद ही हुआ।

वस्तुत: विपक्ष में किसी एक नाम पर पहले से कभी सहमति नहीं बनी या उसकी ज़रुरत नहीं समझी गई. तब सत्ताधारी खेमे की अगुवाई अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता कर रहे थे. उनके पास ‘शाइनिंग इंडिया’ का आकर्षक नारा भी था. पर विपक्षी खेमे ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बगैर वाजपेयी-नीत एनडीए को सत्ता से बेदखल कर दिया. यूपीए की बैठक में गवर्नेंस का एजेंडा तय हुआ. चुनाव नतीजे से साफ हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी. किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. नव-निर्वाचित कांग्रेसी सांसदों ने सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम तय किया. लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया. उनकी इच्छानुसार कांग्रेस संसदीय दल ने नाटकीय ढंग से जब डॉ. मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना तो यूपीए के अन्य घटकों ने भी उन्हें अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया।

बकौल उर्मिलेश ऐसे में 2019 के संसदीय चुनाव के लिए विपक्षी दलों के संभावित मोर्चे की तरफ से किसी एक नेता या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम पर सर्व-स्वीकृति की अपेक्षा करना अपने देश की संसदीय परंपरा और इतिहास से एक तरह का अलगाव ही नहीं, अज्ञान भी होगा. जो लोग देश की संसदीय प्रणाली के बदले ‘राष्ट्रपति प्रणाली’ लागू करने के पैरोकार हैं, वे ऐसा सोचें तो बात समझी जा सकती है. लेकिन भारतीय संसदीय प्रणाली की न तो यह परंपरा है और न ही कोई ज़रूरत है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 74, 75, 77 और 78 से यह तस्वीर बिलकुल साफ हो जाती है।

वैसे आज के परिदृश्य में कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी विपक्ष की भावी मोर्चेबंदी के महत्वपूर्ण सूत्रधार बन गए हैं. संभवतः इसी सत्य को स्वीकारते हुए द्रमुक नेता एम के स्टालिन ने राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का प्रस्ताव पेश किया. कम से कम हालिया विधान सभा चुनावों में राहुल ने मोदी की ‘अपराजेय छवि’ का मिथक तोड़ने में सफलता पाई है. आज शरद पवार जैसे नेता राहुल गांधी को भी स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार हैं. राजग की सहयोगी शिवसेना भी राहुल की तारीफ में कशीदे कढ़ रही है. इनके अलावा शरद यादव, एम के स्टालिन, चंद्रबाबू नायडू, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा, तेजस्वी यादव, फारूक अब्दुल्ला और सुधाकर रेड्डी सहित अनेक विपक्षी नेता भाजपा-विरोधी व्यापक विपक्षी मोर्चेबंदी में राहुल गांधी के नेतृत्व को मंजू़र कर रहे हैं।

सिर्फ़ तीन प्रमुख विपक्षी दलों- टीएमसी की नेता ममता बनर्जी, सपा के अखिलेश यादव और बसपा की मायावती व्यापक विपक्षी मोर्चेबंदी के मुख्य सूत्रधार के रूप में राहुल गांधी को अभी तक मंज़ूर करने से बच रहे हैं. इसके पीछे उनके अपने राजनीतिक गणित होंगे. वैसे जिस देश में 60 सांसदों के बल पर चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन सकते हैं वहां कौन खुद को मुख्य विकल्प घोषित करने की कोशिश कोई क्यों करेगा।

पहले पुलिस की जेब गरम होगी

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