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उत्तरभारतीयों के सम्मान की चिता पर देवेन्द्र ने हासिल की जीत

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25 लाख लिया या नहीं, जीत हासिल कर ली देवेन्द्र ने

मुम्बई में हमेशा अपमान का घूंट पीकर जीने वाले हिन्दीभाषी एक बार फिर हंसी का पात्र बन गये हैं। हद तो यह है कि उनका जमीर, मान, सम्मान किसी ने गिरवी रख दिया और किसी को पता भी नहीं चला। आज कल्याण लोकसभा के हिन्दीभाषियों के चेहरे पर मुस्कान दिख रही हो किन्तु यह मुस्कान बिल्कुल उसी तरह है जैसे शरीर के अंदरूनी हिस्से में लगी चौट को छुपाने के लिये लोग मुस्कुराते रहते हैं किन्तु बाहर से चेहरे पर मुस्कान रहती है। यहीं हाल आज कल्याण डोम्बीवली के उत्तरभारतीय समाज का है। लोग तरह-तरह की बातें तो कर रहे हैं किन्तु अपने अंदर की पीड़ा का शायद उन्हें अहसास नहीं है। इस चुनाव में जीत सिर्फ एक आदमी की हुई है और वह हैं देवेन्द्र सिंह। क्योंकि चुनाव से हाथ खीचने में भी उनके दोनों हाथों में लड्डू ही है।

कल्याण लोकसभा से हिन्दीभाषी समाज का चेहरा बनकर चुनाव में उतरे देवेन्द्र सिंह ने जब शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के सामने अपना नाम पीछे लिया तो सोशल मीडिया पर कुछ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। कोई उन्हें धोखेबाज कहने लगा तो किसी ने आरोप लगाया कि इस समझौते में 25 लाख की डील हुई है। हालांकि हमार पूर्वांचल न तो कोई ऐसा आरोप लगा रहा है और न ही किसी की बात का खंडन करता है। क्योंकि आरोप लगाने वालों का भी अपना नजरिया होता है।

हां इतना अवश्य है कि इस समझौते में फायदे का सौदा देवेन्द्र के हाथ ही लगा है। देवेन्द्र सिंह के इस निर्णय से अधिकतर लोग आहत हैं, किन्तु उनके आहत होने की वजह भी वे खुद है।
गौरतलब हो कि चुनाव से पहले अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये कुछ उत्साहित युवा बेचैन थे। जिसके लिये बकायदा ग्रुप बनाकर लोगों से विचार विमर्श किया गया। लोगों ने अपनी राय भी दी किन्तु उनकी राय नहीं मानी गयी। एकतरफा निर्णय लेने के कारण राय देने वाले भी चुप्पी साध गये, लेकिन इस चुप्पी का फायदा देवेन्द्र सिंह ने एक व्यवसायी की तरह उठा लिया। हम यह कदापि नहीं कहते कि उन्होंने पैसा लेकर चुनाव से हाथ खींचा है। लेकिन इतना अवश्य है कि उन्होंने अपने दिमाग से जो हासिल किया है उसकी भर पायी उत्तरभारतीय समाज नहीं कर सकता है।

यदि गौर करें तो हिन्दीभाषी समाज के प्रमुख लोगों से विचार विमर्श किये उन्होंने चुनाव में कूदने का फैसला लिया। बिना सोचे समझे उन्हें कुछ लोगों ने समाज का चेहरा बना दिया। जो आदमी कभी समाजसेवा में नहीं रहा, कभी राजनीति में नहीं रहा और वह एक व्यवसायी ही रहा तो अपना दिमाग भी एक व्यवसायी की तरह ही चलायेगा। पर्चा दाखिला के बाद ही उन्हें पता चल गया था कि चंद लोगों को छोड़कर उनके साथ समाज का कोई व्यक्ति नहीं है। उन्हें पता था कि जो लोग समाज के साथ खुलकर नहीं आ सकते वे उनकी मदद कैसे करेंगे?

उन्हें मौके का फायदा उठाना परिस्थितियों को देखकर सीखा होगा। इसीलिये उन सभी लोगों को खुद से दूर कर दिया जो अपने हिसाब से उन्हें नचाना चाहते थे। लेकिन वे यह भी समझ चुके थे कि अभी सब लोग गफलत में हैं। शिवसेना कार्यालय में रहने वाले भी दुविधा में थे। लोगों को लगने लगा था कि यदि 25 प्रतिशत उत्तरभारतीय जागरूक हो गये तो श्रीकांत शिंदे को भारी नुकसान हो सकता है। यहीं डर था जो समझौता करने को प्रोत्साहित कर रहा था। जबकि सच्चाई यह थी कि यदि देवेन्द्र सिंह चुनाव लड़े तो लोगों के अनुसार 1000 वोट का आंकड़ा भी पार करना मुश्किल हो जाता।

यह बात इससे भी साबित होती है कि जिनलोगों ने उन्हें साथ देने का भरोसा दिलाया था। उससे वे दूर हो गये थे। बीते दिनों हमार पूर्वांचल ने कई ऐसे सममानित लोगों से बात की जिन्होंने यह कहा कि बिना किसी राय बात के वे चुनाव में कूदे हैं, इसलिये पूरे समाज का चेहरा उन्हें कैसे माना जा सकता है? यदि समाज के लोगों से मिले तो सोचा जायेगा। अधिकतर लोगों के कहने का अभिप्राय यहीं था कि यदि उनके कहे अनुसार देवेन्द्र सिंह चले तो वे सहयोग देने के लिये तैयार हैं। लबोलुआब यह कि चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी अपने दिमाग को जेब में रख ले और दूसरे की सुने। ऐसे में वे कितने लोगों की बात मानते। जब समाज में ऐसा कोई सर्वमान्य व्यक्ति न हो जिसकी सुनी जाय तो तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है।

कुछ दिन ऐसे ही और बीत जाते तो श्री शिदे को श्री सिंह की पैठ का अहसास हो जाता। इस मामले में समाज के प्रबुद्ध लोगों की चुप्पी का फायद देवेन्द्र सिंह ने उठाया और एकनाथ शिंदे का जो भी गुप्त प्रस्ताव था उसे मान लिया। आज बहुत से लोगों की छटपटाहट सोशल मीडिया में देखी जा रही है। जो लोग दिल से साथ में थे उनका गुस्सा सातवें आसमान में हैं। उन्हें यह महसूस हो रहा है जैसे उन्हें ठग लिया गया हो। उनके स्वाभिमान को बेच दिया गया हो। लोगों का कहना है कि जिनलोगों ने उनपर विश्वास जताया था कम से कम उन्हें तो विश्वास में लेते किन्तु ऐसा नहीं हुआ। आज भले ही देवेन्द्र सिंह हिन्दीभाषी समाज के स्वघोषित नेता बन गये किन्तु जिनकी आखों का विश्वास आज टूटा है उसे वह कभी नहीं जोड़ पायेगे।

लोकसभा चुनाव से देवेन्द्र सिंह की वापसी के बाद कुछ लोग अभी से विधायक होने का सपना देखने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे विधानसभा में जाने का रास्ता तय करने वाले हैं, लेकिन इसका सीधा लाभ सिर्फ देवेन्द्र सिंह को मिला है। एकनाथ शिंदे की बात मान लेने से उनका सम्मान तो एक वर्ग में बढ़ा ही है। शिवसेना और भाजपा के नेताओं की निगाह अब उनके प्रति सम्मानित होगी। शासन प्रशासन द्वारा सहयोग मिल सकता है, किन्तु सवाल वहीं खड़ा है कि उन्हें क्या मिला जिन्होने देवेन्द्र सिंह के लिये खुद को जगजाहिर कर दिया? उत्तरभारतियों की आदत है कि वे सही गलत का फैसला करने में अक्षम हैं इसीलिये चुप रहते हैं। क्या एकनाथ शिंदे को कोई भी उत्तरभारतीय यह सवाल कर पायेगा कि समाज से राय लिये बिना देवेन्द्र सिंह को आपने हिन्दीभाषी नेता मान लिया, जब हमसे विचार नहीं लिया गया तो हम पहले आपके साथ थे। देवेन्द्र सिंह के साथ नहीं है और अब देवेन्द्र सिंह आपके साथ है तो हम आपके साथ नहीं हैं।
… शायद नहीं ……….!

कल्याण लोकसभा: श्रीकांत के सामने नतमस्तक हुये देवेन्द्र नहीं लड़ेंगे चुनाव