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हर दाग अच्छे नहीं होते

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”दाग अच्छे हैं”। इस विज्ञापन को टीवी पर इतनी बार दिखाया गया है कि सबकी जुबां से निकल जाता है ”दाग अच्छे हैं”। लेकिन जनाब! हर दाग अच्छे नहीं होते हैं। समय के साथ दाग भले ही मिट जातें हैं किन्तु दाग के निशान कभी मिटते नहीं हैं। फिर भी यह दाग कपड़ों तक ही सीमित रहे तो ठीक है, लेकिन जिस दाग के धब्बे हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति और आपसी भाईचारे पर लगे हैं। वे दाग तो कभी अच्छे नहीं हो सकते हैं।

24 फरवरी 2020 का दिन हमारे भारतीय इतिहास के पन्ने पर एक ऐसे दाग के रूप में अंकित हो गया है जिसे मिटा पाना बिल्कुल असंभव है। 1984, 90, 92, 2002 के बाद 2020 भी एक काले दाग के रूप में अपनी जगह बना लिया। है। अपने राजनीतिक लाभ के लिये सीएए के विरोध में लोगों को भड़काकर सड़क पर उतारने वाले कभी कल्पना भी नहीं किये होंगे कि उनकी यह घटिया राजनीति कितने लोगों की जान ले लेगी, कितने लोगों का घर उजाड़ देगी। कितने लोग तबाह बर्बाद हो जायेंगे।

होना तो यह चाहिये था कि जब देश में नागरिकता संशोधन कानून बना तब इस कानून का सही पक्ष जनता के सामने रखने में सभी दलों को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि भारत में विपक्ष का मतलब ही यहीं रह गया है कि चाहे कुछ भी हो लेकिन विरोध करना ही है। सरकार द्वारा जो भी फैसला लिया जायेगा उसमें नुक्ता—चीनी करके जनता को यहीं बताना है कि सरकार ने गलत फैसला लिया है। विपक्ष को सिर्फ अपना वोट बैंक बचा के रखना है।

सीएए पारित होने के बाद देश में सरकार के खिलाफ विपक्ष ने एक शीतयुद्ध छेड़ दिया। इस कानून से देश के मुसलमानों का कोई लेना देना नहीं है किन्तु विपक्ष यहीं बताता रहा कि यह कानून मुसलमानों के हित में नहीं है। विपक्ष का कोई नेता लोगों को सड़क पर उतरने को ललकारता रहा तो कोई हिन्दुओं को मारने काटने की बात करता रहा। भाजपा सरकार में शामिल लोग भी शांत होकर बैठे रहे। क्योंकि विपक्ष के इस कारनामें में उन्हें अपना लाभ ही दिखायी दे रहा था। बहुसंख्यक समाज को अपने आप ही संदेश जा रहा था कि भारत का अधिकांश मुस्लिम हिन्दू हित के बारे में नहीं सोचता बल्कि सिर्फ अपने धर्म के बारे में सोचता है। लोगों को यहीं बताया जाता रहा कि देखों बंग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों के लिये यहां का विपक्ष और अधिकांश मुस्लिम समाज एकजुट हो गया है।

हमेशा एक दूसरे के साथ रहने वाले, एक दूसरे के सुख—दु:ख, त्योहार, शादी—विवाह में शामिल होने वाले बिना सोचे समझे सिर्फ अपने नेताओं की खातिर एक दूसरे की जान लेने पर अमादा हो गये। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की ​हत्या के बाद सैकड़ों सिक्खों को गाजर मूली की तरह काट दिया गया। 1990 में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर में लाखों कश्मीरी पंडितों को बेघर होना पड़ा। अपनी बहन बेटियों का बलात्कार होते देखकर खून के आंसू पीना पड़ा। आज 30 साल बाद भी वे दर दर की ठोंकरे खाने को मजबूर हैं। 1992 में बाबरी ढांचा गिरने के बाद हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। 2002 में गुजरात गोधरा काण्ड में रेल डिब्बे में सैकड़ों लोग भुन गये। उसके पश्चात भड़की आग में सैकड़ों ने अपनी जान गंवा दी। ऐसा ही एक दाग 24 फरवरी 2020 को लग गया।

कैसे कहा जा सकता है कि दाग अच्छे हैं। इस दंगे में जिन लोगों ने अपना परिवार गंवाया है। वे वापस नहीं आयेंगे। नुकसान की भरपाई भले ही हो जाये लेकिन जो मर गये उन्हें जिंदा कौन करेगा। दरअसल बेवकूफ राजनेता नहीं हैं। उनका काम हो चुका है। आमलोगों की बरबादी पर अपनी राजनीतिक सेंकने वाले हर दौर में रहेंगे। कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर आम लोगों को लड़ाते रहेंगे। दंगे के बाद शांति मार्च निकलेगा। अमन चैन भाईचारें के गीत गाये जायेंगे। हर कोई अपने नेताओं के जयकारे लगायेगा। लेकिन यह कदापि नहीं सोचेगा कि वास्तव में सामाजिक तानाबाना बनाये रखने के लिये हमें किस तरह रहना है। जागिये, सोचिये और संभल जाईये। क्योंकि हर दाग अच्छे नहीं होते।

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