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त्वरित टिप्पणी : चिंता सताने लगी है! वरना यूं ही सवर्णों के लिए पिटारे नहीं खुलते

हमार पूर्वांचल

बीते तीन राज्यों के चुनाव में मिले झटकों ने मोदी सरकार के इस अहं कि ‘सवर्ण बीजेपी छोड़ जाएंगे कहां’ पर ऐसा प्रहार किया कि नए चुनावी वर्ष यानी लोकसभा चुनाव से पहले 10% गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का एलान हो गया। जबकि ऐसा नहीं है, जानकर बताते हैं कि यह 10% आरक्षण सिर्फ हिन्दू सवर्णों के साथ साथ मुस्लिम और ईसाई को भी मिलेगा।

एसीएसटी (दलित उत्पीड़न कानून) मुद्दे पर सवर्णों, ओबीसी की नाराजगी झेल रही भाजपा को अपने खिसकते जनाधार की चिंता सताने लगी है, वरना यूं ही सवर्णों के लिए बीजेपी के पिटारे नहीं खुलते।

पूर्व केंद्रीय कांग्रेस सरकार में महंगाई, सेना पर हमले, डीजल-पेट्रोल के दामों में बेतहाशा वृद्धि से ऊब चुकी जनता ने 2014 में जब देखा कि भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी हैं तो सभी तबके के लोगों को मोदी से आस लगी, की गुजरात को रोल मॉडल बना चुके नरेंद्र मोदी अगर देश के प्रधानमंत्री बनेंगे तो देश की दिशा और दशा में बेहतर बदलाव आएगा, नौकरी, शिक्षण संस्थानों सहित कई जगहों पर आरक्षण के कारण कट छंट रहे सवर्णों को यह आस जगी की बीजेपी सरकार आते ही नरेंद्र मोदी इसमें संसोधन करेंगे।

और 2014 के अपने चुनावी सभाओं में उमड़ रही भीड़ से नरेंद्र मोदी ने कई वादा और दावा किये। नतीजा केन्द्रीय सत्ता सुख से वंचित भाजपा केंद्र में पूर्ण बहुतम से आई, समय बीतते-बीतते नरेंद्र मोदी की कई घोषणा सिर्फ घोषणा बनकर रह गयी, जिसमें विदशों से काला धन देश मे वापस मंगाना, कश्मीर से धारा 370 खत्म कर देना वगैरह वगैरह है, हद तो तब हो गयी जब चुनावी वादों में काला धन वापस आने पर देश के नागरिकों के खातों 15 लाख रुपये वाले वादे को अमित शाह ने एक जुमला कह दिया।

काले धन की वापसी के दावे के साथ जब मोदी ने नोट बंदी किया उस समय आई अफरा-तफरी, परेशानी से भी आमजन में मोदी की लोकप्रियता कम होने लगी।
रही सही कसर उस वक्त पूरी हो गयी जब दलित उत्पीड़न कानून में सुप्रीमकोर्ट के संसोधन को स्वीकारने की बजाय मोदी सरकार ने पूर्व की तरह ही बहाल रखने का फैसला किया।

नतीजा यह हुआ कि भाजपा के बेस वोटर माने जाने सवर्णों का नरेंद्र मोदी से मोहभंग हो गया, जिसका परिणाम बीते मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखने को मिला। कहा जाता है कि यहां भाजपा के वोटरों ने ‘नोटा’ (नॉन ऑफ द एवब) मतलब (इनमें से कोई नहीं) को चुना, लिहाजा यहां सत्ता गवां चुकी आत्ममुग्ध भाजपा के केंद्रीय नेताओं की तन्द्रा टूटी।

अब इसी साल यूं कहें दो तीन महीने बाद लोकसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा नाराज सवर्ण वोटरों को साधने के लिए मोदी सरकार लुभावने ऑफर लाएगी। देखना यह होगा कि 10℅ आरक्षण के वादे पर सवर्ण फिर से भाजपा के साथ आते हैं या भाजपा सरकार के प्रति अपना रुख उदासीन रखते हैं।

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