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नाच रही सियासत नचा रही अयोध्या

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कभी अयोध्या के नाम पर भाजपा को साम्प्रदायिक होने का प्रमाण बांटने वाले सभी दल अब लगा रहे राम नाम की रट

वर्ष 1980 के बाद देश में तेजी से बढ़ी जाति धर्म और क्षेत्रवाद की सियासत के बीच धर्म मार्ग से राष्ट्रीयता की धूरी बन बैठी अयोध्या आज देश के समूचे राजनीतिक दलों को नचाती दिख रही है। कलतक धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक वारिस बताने वाले लोग आज अयोध्या में अपनी आस्था प्रकट करने लगे हैं। अब उनके लिये अयोध्या धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता की प्रतीक नहीं बल्कि राष्ट्रीयता की पहचान है। अब उनके लिये भगवान राम उनके परम ईष्ट और रामनगरी अयोध्या भारत की विरासत भारतीयता की केन्द्र बिंदु है। कभी राम के नाम मात्र में साम्प्रदायिकता के समावेश का दावा करने वाले सियासती राम नाम के खिलाफ गैर हिन्दुओं के वोट का ध्रुवीकरण कर सत्ता का रास्ता तलाशते थे। आज उन्हें भी लगने लगा कि राम नहीं तो सत्ता नहीं। आखिर यह क्यों और कैसे हुआ। जिस अयोध्या को सियासती दल राजनीति का मोहरा बनाये आज वहीं अयोध्या इस स्थिति में पहुंच गयी कि सियासती दल अयोध्या के इशारे पर नाच रहे हैं। डेहरी पर खड़ा उत्तरप्रदेश का विधानसभा चुनाव पूरी तरह अयोध्या पर ही केन्द्रीत हो गया है।

ऐसा अनायास ही नहीं हुआ बल्कि उस सोची समझी दूरगामी रणनीति के कारण हुआ जिसका ताना बाना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बुना और उसे बहकने नहीं दिया। राम और राम की नगरी अयोध्या को राष्ट्रीयता की प्रतीक स्वरूप स्थापित करने के रास्ते पर बढ़ता रहा। नतीजा यह रहा कि सारे गैर भाजपाई राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता की दोहाई देते देते भारतीय राजनीति से ही हाशिये की ओर खिसकने लगे। राम के प्रति भारतीयों की आस्था और देशवासियों के नजर में सजाये अयोध्या के महत्व को जब तक समझ पाते तब तक काफी देर हो चुकी थी। अयोध्या के सुयश का श्रेय भाजपा ले उड़ी थी। अयोध्या से भाजपा की उंची उड़ान कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को अपनी गलती का अहसास कराया। आखिर तभी तो देश की सबसे बड़ी और पुरानी धर्मनिरपेक्ष पार्टी कांग्रेस के नेता जगह जगह अपने हिन्दू होने का प्रमाण देते घूमने लगे। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी कभी जनेउ पहनने लगे तो कभी मंदिर मंदिर जाकर आस्थावान हिन्दू होने का दंभ भरने लगे। उनकी बहन एवं कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा गंगा स्नान करने लगी। सपा नेता अखिलेश यादव को राम में ईष्ट देव नजर आने लगे।

सपा नेता ने दावा किया कि राम अकेले भाजपाइयों के ही नहीं बल्कि सबके हैं। कहा कि समय आने पर वे परिवार सहित अयोध्या जाकर रामलला का दर्शन पूजन करेंगे। बसपा प्रमुख मायावती एक कदम और बढ़ गयी। कहने लगी कि प्रदेश में उनकी सरकार आयी तो अयोध्या में और तेजगति और भव्यता से भगवान श्रीराम का जन्मभूमि मंदिर बनेगा। आम आदमी पार्टी प्रमुख एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी भगवान राम को अपना ईष्ट बताने में परहेज नहीं हुआ। आज सभी दल राम और अयोध्यामय होने की होड़ में हैं। तो भाजपा इस श्रेय में है कि टेन्ट में छिपे रामलला को भव्य मंदिर तक पहुंचाने का कार्य उसका और उसके समर्थकों का है।

जो भी हो किन्तु सच यह है कि यह सियासत है सत्ता की। राम के आस्था की नहीं । यह तो संयोग रहा कि सत्ता के लिये जिन सियासतदारों ने राम और उनकी अयोध्या को मोहरा बनाया आज वहीं अयोध्या के इशारों पर नाचने को विवश हैं। सत्ता बचाने के प्रयास में लगी भाजपा को दोहरी चुनौती भी अयोध्या से मिल रही है। अब तक तो वह राम और राम की अयोध्या की इकलौती वारिस मानती थी। किन्तु जिस तरह कांग्रेस समेत सपा बसपा और आम आदमी पार्टी राम और अयोध्या पर अपना हक बताने लगे हैं। तभी से भाजपा के सामने सबसे बड़ा रामभक्त होने की दावेदारी को बचाये रखने की चुनौती खड़ी हो गयी है। भाजपा को चिन्ता राम की नहीं बल्कि देश के उन 85 प्रतिशत हिन्दू मतदाताओं की है। जिन्हें वह राम अयोध्या काशी और मथुरा के नाम पर एकजुट करने के प्रयास में है। जिसमें वह अब तक काफी हद तक सफल भी रही है। किन्तु इसमें कथित धर्मनिरपेक्षवादियों का प्रवेश भाजपा के बनते कामों को बिगाड़ने की आशंका पैदा कर दिया है।

कभी राजनीतिक दलों के लिये सत्ता का मोहरा मानी जाती रही अयोध्या आज उन्हें ही नचाने लगी है जो कभी उसे अपने हित का हथियार समझते थे। कोई राम की दोहाई देकर वोट हथिया रहा था तो कोई रामवादियों को साम्प्रदायिक बताकर गैर हिन्दू मतदाताओं का सिरमौर बना था। पक्ष विपक्ष दोनों ही राम के नाम का लाभ ले रहे थे। यह सिलसिला शायद लंबा चलता किन्तु उच्चतम न्यायालय के एक फैसले ने सियासतदारों के हाथों से राम नाम का हथियार गायब कर दिया। यानि जिस रामजन्मभूमि को लेकर तनातनी थी। आज वह गैर विवादित हो गयी। अब उस स्थान पर भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर भी बनने लगा। अब राम के नाम पर सत्ता का सौदा नहीं हो पायेगा। यह जानते ही जब भाजपा राममंदिर का श्रेय लेना चाही तो गैर भाजपाई दल भी राम मेरे भी राम कहकर अयोध्या कूच करने लगे हैं। सियासतदारों की ऐसी मौका परस्ती देश के धर्मनिरपेक्ष वादियों को हैरत में भले ही डाल दे किन्तु अयोध्या तो इस बात पर मुस्कुरा रही है कि वह सत्ता की मोहरा नहीं बल्कि सियासत को ही नचाने की मूल धूरी है।

वैसे तो रामजन्मभूमि का मामला आजादी पूर्व से ही है। किन्तु सियासती तौर पर यह मामला वर्ष 1992 में तब आया जब तत्कालीन भाजपाध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान के लिये राष्ट्रीय स्तर पर रथयात्रा निकाली अयोध्या में कारसेवा हुई । बाबरी ढांचे पर चढ़े कारसेवकों पर तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव व सरकार ने गोली चलवाई। बंगाल के कोठारी बंधुओं समेत कईयों की जान गयी। तभी से अयोध्या चुनावी मुद्दा बना जो आजतक कई सरकारों को बनाने बिगाड़ने का काम किया। पूरी दुनिया देखी कि रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान ही भाजपा के उदय और कांग्रेस समेत कई अन्य जाति कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के पतन का कारण बना। करीब तीस वर्षों से भारत की सत्तालोलुप राजनीति अयोध्या पर टिकी है। यदि आगे भी काशी और मथुरा इसी अयोध्या के नक्शे कदम पर चल पड़े तो आश्चर्य नहीं। जो भी हो किन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सियासत के शह और मात वाले खेल में तीस वर्षों से सियासत की धूरी बनी अयोध्या ने उन सभी को मात दी है जो उसमें साम्प्रदायिकता की आग देखा करते थे। उनकी पराजय का सबसे प्रमाण यहीं है कि अब वहीं लोग राम और राम की अयोध्या में अपनी आस्था जाहिर कर रहे हैं।

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